भारत और पकिस्तान दुनिया के दो ऐसे देश हैं, जो अलग होने के बाद लगातार विश्व राजनीति को प्रभावित करते रहे हैं. लगभग सात दशक पहले तक भारत का अभिन्न अंग रहे पाकिस्तान ने बंटवारे के बाद लगातार ऐसी कोशिशें जारी रखीं, जिनसे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उसे सहानुभूति प्राप्त हो और भारत की आलोचना की जाए. हालांकि अकसर वो अपने मंसूबों में नाकामयाब ही रहा है. विदेशी नीति, कूटनीति से लेकर आतंकी वारदातों तक, पाकिस्तान का हर कदम भारत के खिलाफ ही रहा है. पिछले कुछ सालों में भी वो लगातार संघर्ष विराम का उल्लंघन करता रहा है और आज भी तरह-तरह की आतंकी साजिशों से भारत को उकसा रहा है. 

ये बात जगजाहिर है कि भारत की सैन्य क्षमताओं और वैश्विक पहचान के सामने पाकिस्तान कुछ नहीं, यही वजह है कि पाक हमेशा की तरह आज भी पीछे से वार करने में यकीन रखता है. आज 1965 के युद्ध और सीज़फायर के 51 साल पूरे होने पर हम उस वक्त के हालातों से आपको रू-ब-रू करवा रहे हैं. तब भी पाक ने कायरों की तरह हमला किया था और आज भी उसकी कोशिश यही है. भारत तब भी शांत होकर सब कुछ देख रहा था और आज भी चुप है. हमारी नीति यही है कि हम किसी पर हमला नहीं करेंगे, लेकिन किसी ने किया तो उसे बख्शेंगे भी नहीं. तो सवाल ये है कि भारत की ये शांति आने वाले तूफ़ान का संकेत तो नहीं!

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1965 के युद्ध में भारत की विजय काबिलियत, साहस और कूटनीति के तमाम फैसलों की परिणति है, जिस पर आज हर भारतीय को नाज है. इसमें उस समय के सेनाध्यक्षों के साथ-साथ तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री का वो साहसिक फैसला भी शामिल है, जिसकी वजह से हम इस युद्ध को जीत सके. इस लड़ाई को ‘कश्मीर का दूसरा युद्ध’ भी कहा जाता है. पाकिस्तानी सेना द्वारा 1965 की लड़ाई लड़ने का मकसद था, कश्मीर को हिंदुस्तान से अलग करना. लेकिन इतिहास की कहानी कुछ और लिखी जानी थी, देश के जांबाज़ सिपाहियों ने पाक के मनसूबों पर पानी फेर दिया.

मुख्यतः एक सितंबर से शुरू होकर 22 सितंबर तक चले इस युद्ध की शुरुआत पाकिस्तान की तरफ से की गई थी, जिसमें बिना किसी पूर्व तैयारी के भारतीय सेना के जवानों ने पाक के ‘आपरेशन जिब्राल्टर’ को सफल नहीं होने दिया.

भारत-पाक के बीच का यह युद्ध पाकिस्तान के तत्कालीन विदेश मंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो की अति महत्वाकांक्षा का नतीजा था. उन्होंने राष्ट्रपति जनरल अयूब खान को ये विश्वास दिलाया कि कश्मीर में पाकिस्तान द्वारा हमला होने पर वहां की जनता भारत के खिलाफ विद्रोह कर देगी, जिसका सीधा लाभ पाक को फतह के रूप में मिलेगा. फिर युद्ध होने से पहले ही खत्म हो जाएगा. 1961-62 चीन युद्ध के बाद, पहले से तबाह भारत इस युद्ध के लिए तैयार नहीं होगा, यह  सोचकर पाकिस्तान ने समय चुना था.

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इस युद्ध को तीन चरणों में बांटा जा सकता है, जो कच्छ के रण में 1965 की जनवरी में पाकिस्तान के ‘आपरेशन डेजर्ट हाक’ से ही योजनाबद्व तरीके से शुरू हो गया था. पाकिस्तान कच्छ के बड़े हिस्से पर अपना हक जता रहा था. फलस्वरूप अप्रैल में दोनों मुल्कों ने एक-दूसरे की चौकियों को निशाना बनाया. लेकिन ब्रिटेन के हस्तक्षेप के बाद 30 जून को सीजफायर हुआ. कुछ समय बाद 5 अगस्त को ‘आपरेशन जिब्राल्टर’ के तहत पाक सेना ने कश्मीर को हड़पने के चक्कर में अंतर्राष्ट्रीय सीमा लांघ दी, लेकिन जवाबी कार्यवाही करते हुए भारतीय सेना ने सीमा लांघ कर हाजीपीर और दूसरी पोस्ट पर कब्जा कर लिया, जिसे शांति होने के बाद 1966 में पाकिस्तान को लौटा दिया गया था.  

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पाकिस्तान की सेना ने अपना तीसरा आपरेशन ‘ग्रांड स्लैम’ शुरू किया. एक सितंबर को वह छम्ब से आकर भारत के अखनूर पुल तक पहुंचा. यहां से पाकिस्तान को भ्रमित करने की नीति के तहत भारतीय सेना ने पंजाब फ्रंट खोला और फौजें बरकी तक पहुंच कर लाहौर की बॉउंड्री पर बाटा फैक्ट्री को अपनी चौकी बना लिया. भारतीय फ़ौजियों ने सियालकोट सेक्टर में बढ़त बनाई, जहां पाकिस्तान के अमेरिकन पैटर्न टैंकों के साथ जबर्दस्त जंग की गयी. शीघ्र ही पाकिस्तानी सेना कमजोर पड़ने लगी. उसके ज़्यादातर पैटर्न टैंक नष्ट किये जा चुके थे और सैनिकों के स्तर पर भी भारत के आगे कमतर रह गया था.  

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पाकिस्तान के आधुनिक अमेरिकी पैटर्न टैंकों को भारतीय टैंकों ने जबर्दस्त टक्कर दी. हमारे टैंक पुराने होने के बावजूद हमारी सेना ने पाकिस्तान के ज़्यादातर टैंक नष्ट कर दिये. इसकी सबसे बड़ी वजह हमारे जवानों का शौर्य और जज्बा था. थल सेना द्वारा लड़े गये युद्ध को भारतीय वायु सेना ने आकाश से भरपूर सहयोग दिया, जो कुशल रणनीति का ही परिणाम था. इस युद्ध को द्वितीय विश्व युद्ध के बाद सबसे भीषण टैंक युद्ध के रूप में भी याद किया जाता है, जिसके पश्चात् अमेरिका को अपनी टैंक तकनीक की समीक्षा करनी पड़ी थी.

5 हफ्ते की जंग के बाद संयुक्त राष्ट्र के हस्तक्षेप के परिणामस्वरूप 23 सितंबर को दोनों सीमाओं पर युद्धविराम हुआ और सोवियत संघ की मध्यस्थता में जनवरी 1966 में ताशकंद समझौता हुआ. 

एक रिपोर्ट के अनुसार, पाकिस्तानी राष्ट्रपति जनरल अयूब खान ने युद्ध के बाद कहा था कि ‘हमें ये समझ लेना चाहिए कि हम कश्मीर के लाखों लोगों की ज़िंदगी के लिए अपने देश के करोड़ों लोगों की ज़िंदगी को दाव पर नहीं लगा सकते.‘