3 इडियट्स का वो सीन, जिसमें Virus (बोमन ईरानी), रैंचो (आमिर खान) से कहता है कि, ‘लाइफ इज़ आ रेस. अगर भागोगे नहीं, तो पीछे रह जाओगे और पीछे रहने वालों के लिए कोई जगह नहीं होती’. ये डायलॉग वो आईना है, जिसमें हम भारतीयों की महत्वकांक्षा साफ़ दिखती है.

ये महत्वकांक्षा है अपने बच्चे को IITian बनाने और देश के प्रतिष्ठित संस्थानों से इंजीनियरिंग करवाने की. दुर्भाग्यवश इस रेस में अमन जगह नहीं बना सका. वो उस दौड़ से बाहर हो गया, जिसमें भाग कर बच्चे इंजीनियर और डॉक्टर बनते हैं.

बिहार के रहने वाले 16 साल के अमन कुमार गुप्ता ने गुरुवार को चम्बल नदी के ऊपर बन रहे एक ब्रिज से कूद कर जान दे दी. जान देने से पहले उसने एक विडियो बनाया, जिसमें उसने अपने पापा से सॉरी कहते हुए कहा कि वो कभी ये सब नही कर पाएगा. वो शर्मिंदा था कि अपने पापा के सपने को पूरा नहीं कर पाएगा. जान देने से पहले उसने अपने कुछ दोस्तों को भी इन्फॉर्म किया था. अमन कोटा के एक कोचिंग इंस्टिट्यूट में पढ़ रहा था, जो समय से पहले बच्चों को Competitive एग्ज़ाम्स के लिए तैयार करते हैं.

11 मिनट लंबी उस विडियो क्लिप में अपने आंसू छिपाता अमन अपने पापा से कह रहा था कि वो सबकी हेल्प मिलने के बाद भी एक अच्छा स्टूडेंट नहीं बन पाया. उसने कहा कि उसकी मौत के बाद घरवाले उसके छोटे भाई पर ध्यान दें, लेकिन उसे पढ़ने के लिए कभी घर से बाहर न भेजें.

‘साइंस स्ट्रीम ली है, तो इंजीनियर-डॉक्टर ही बनेगा’, ये सोच उतने इंजीनियर नहीं बना रही है, जितनी जानें ले रही है. दसवीं के एग्जाम का रिज़ल्ट आने के बाद हर ब्राइट स्टूडेंट से उम्मीद की जाती है कि वो साइंस ले (क्योंकि हर इंटेलीजेंट बच्चा साइंस स्टूडेंट होना चाहिए) और इंजीनियर या तो डॉक्टर बने. क्योंकि ऐसा ही चलता आ रहा है, इसके अलावा और कोई विकल्प नहीं होता. बच्चा चाह कर भी अपने इंटरेस्ट को छुपा लेता है, क्योंकि उससे उसे नौकरी नहीं मिलेगी.

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मां-बाप का इस तरह से सोचना एक तरह से सही भी है, क्योंकि हर परिवार इतना सक्षम नहीं होता कि अपने बच्चे की हॉबी या पैशन के लिए समय और पैसा दे सके. लेकिन क्या समाज के तौर पर ये हमारा दायित्व नहीं बनता कि हम उसे सिर्फ़ इंजीनियरिंग या डॉक्टरी के लिए धकेलने के बदले उसे और विकल्प दें?

हर साल लाखों बच्चे बड़े Coching Institutes में एडमिशन लेते हैं. उनके सिर पर कुछ कर गुजरने का जोश भी होता है और मां-बाप की इच्छाओं का भार भी. घर से मीलों दूर, ये मासूम उस भीड़ का हिस्सा बनते हैं, जो बड़े-बड़े कॉलेजों में दाखिले के लिए खटखटा रही होती है. इस सवाल का जवाब एक बच्चा भी दे देगा कि का हर क्या स्टू़डेंट उस कोचिंग इंस्टिट्यूट से निकल कर एक दिन वहां पहुंचेगा? ज़रूरी नहीं. तो फिर बच्चों को ऐसे झूठ में क्यों लपेटा जाता है और क्यों उनके मां-बाप फर्स्ट आने का बोझ उनके सिर पर डालते हैं?

जिस उम्र में बच्चे को घरवालों का सबसे ज़्यादा सपोर्ट चाहिए होता है, उस उम्र में वो एक छोटे से किराए के कमरे या हॉस्टल के शेयरिंग रूम के बिस्तर पर अकेले किताबों के बोझ तले जूझ रहे होते हैं.

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जितने भी इस्टिट्यूट अपने Ads में अपने Success Rate का बखान करते फिरते हैं, उनकी सफलता का पैमाना बहुत टेढ़ा और Flawed है. जिस कोचिंग में लाखों बच्चे पढ़ते हों, वहां से कुछ 50 बच्चों का टॉपर बनना उस कोचिंग की नहीं, बल्कि बच्चे की सक्सेस है. 10 सालों से एक ही बैच के बच्चों की तस्वीरें दिखा कर ये पढ़ाई के बिज़नेसमेन लोगों की कमाई तो लूटते ही हैं, बच्चों को भटकाते भी हैं.

हमने शायद कभी उस बच्चे के तरफ़ से सोचने की कोशिश नहीं की, जो रोज़ खुद को हार और विफलता से समेटते हुए Exams में अच्छा Perform करने की कोशिश करता है. एक तरफ उसके दिमाग में ये प्रेशर होता है कि उसे कोचिंग में अच्छा परफॉर्म कर एग्ज़ाम्स क्लियर करने हैं. दूसरा प्रेशर घर से दूर रहने का और सपोर्ट सिस्टम के ना होने का. क्या गुज़रती होगी उस बच्चे पर, जो लगातार तीन सालों से एक ही एग्जाम में पास होने के लिए कोशिश कर रहा है?

समय आ गया है जब हम इंजीनियरिंग और मेडिकल के प्रति अपने इस ‘Collective Fascination’ और अंधे प्रेम को खत्म करें. जो अमन आज इस दुनिया में नहीं है, वो शायद कुछ और हो सकता था, शायद वो ज़िंदा हो सकता था.

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