ये कहानी नहीं, बल्कि एक कड़वी सच्चाई है, जिसे हम स्वीकार नहीं करना चाह रहे हैं. 90 के दशक में बच्चों के पास पढ़ाई के अलावा खेलने का समय होता था. शाम का समय बच्चों के शारीरिक विकास के लिए था, मगर आज ऐसा नहीं हो रहा है. शाम के समय बच्चों की हलचल नहीं होती है, वे घर में बैठ कर अपना होमवर्क करते हैं या फ़िर कार्टून देख रहे होते हैं.
श्रुति की उम्र अभी 8 साल है और सत्यम की उम्र 5 साल. ये दोनों बच्चे रोज़ स्कूल बस से जाते हैं. स्कूल जाते समय इनके कंधे पर करीब 4 किलो का स्कूल बैग होता है. सत्यम अभी बहुत छोटा है, इसलिए श्रुति ही उसका बैग ले कर जाती है. सोचिए, 8 साल की लड़की 4 किलो का बैग रोज़ ले जा रही है. ये कहानी सिर्फ़ श्रुति और सत्यम की नहीं, बल्कि इनके जैसे सभी इस उम्र के बच्चों की है. मुझे याद है कि जब हमने पढ़ाई की थी, तो हमारे पास महज़ एक स्लेट हुआ करता था. चौथी क्लास तक हमारे पास महज़ 3 किताबें और 2 कॉपियां हुआ करती थीं.


ऐसा नहीं है कि बच्चों के लिए पढ़ाई या कार्टून देखना ज़रुरी नहीं है, मगर ये उन पर एक बोझ बन गया है. हम अभी से अपने बच्चों पर पढ़ने का दबाव डाल देते हैं. बच्चों के जन्म लेते ही हम तय कर लेते हैं कि इन्हें इंजीनियर बनाना है या सरकारी अफ़सर. हम उनका सही मानसिक विकास नहीं होने देते हैं.

स्कूल जाने से पहले बच्चे अपने मां-बाप से ही घर पर बहुत कुछ सीखते हैं. उन्हें बच्चों का प्रथम गुरु कहा जाता है, लेकिन आज की इस तेज रफ़्तार भागती ज़िंदगी में माता और पिता दोनों काम में बिजी रहने लगे हैं, जिसकी वजह से वह बच्चों की परवरिश और पढ़ाई दोनों की तरफ ध्यान नहीं दे पाते. हमें लगता है कि बच्चों को कॉन्वेंट स्कूल में भेजने से हमारी समस्या का अंत हो गया है. पेरेंट्स स्कूल टीचर और ट्यूशन पर ही निर्भर हो गए हैं, उन्हें पता ही नहीं है कि बच्चों को पढ़ाने का सही तरीका क्या है?

आज पढ़ाई बच्चों पर एक बोझ सी बन चुकी है. स्कूल्स अब उद्योग बन चुके हैं. वे हमसे स्कूल फीस तो लेते ही है, साथ ही साथ वे हमें स्कूल से कॉपी, किताबें, बैग्स और स्कूल ड्रेसेज़ भी लेने के लिए बाध्य करते हैं. इस बात से मैं सहमत हूं कि बच्चों के अनुशासन के लिए उनका ड्रेस में होना अनिवार्य है, मगर स्कूल से ड्रेस ख़रीदना कहां तक जायज़ है?
आज हमारे पास फु़र्सत नहीं है, हम अपनी लाइफ़ में इतने व्यस्त हो चुके हैं कि अपने बच्चों की पढ़ाई के बारे में उनसे पूछते तक नहीं हैं. हमें लगता है कि स्कूल फीस भर देने से हमारा काम ख़त्म हो चुका है. हमें ये बात ध्यान में रखनी चाहिए कि स्कूल एक धंधा बन चुका है. हम शायद भूल चुके हैं कि स्कूल की लूट और पेरेंट्स की छूट के बीच बच्चे पिस रहे हैं. उन पर मानसिक दबाव ख़ूब बढ़ रहा है. वे डिप्रेशन में आ जाते हैं और कुछ ग़लतियां कर बैठते हैं, जिनमें से पॉर्न मूवीज़ देखना, हिंसक वीडियो गेम्स खेलना और नशा करना इत्यादि है.

कई बार बच्चों की गलतियों पर हम उन्हें डांट देते हैं. अगर आप यह सोचते हैं कि आपकी डांट और मार से बच्चा फटाफट पढ़ाई करने लग जाएगा, तो आप बिल्कुल ग़लत सोचते हैं क्योंकि आपके डर से बच्चा पढ़ाई करने पर मज़बूर तो हो जाएगा लेकिन आपकी नज़र हटते ही वह पढ़ाई को बोझ समझने लग जाएगा.
बच्चों पर निगरानी रखनी ही चाहिए, ताकि उनको पढ़ाई बोझ ना लगे. बच्चों को अपना समय ज़रुर दें. बच्चों को इस तरह से समझाएं कि वह पढ़ाई को डर न समझें और एन्जॉय करें. इसके लिए आप में धैर्य होना बहुत ही ज़रूरी है. वह आपसे एक सवाल कई बार पूछेगा और आपको उसे ढंग से समझाना भी होगा.