हमें अपना घर सबसे सुकूनभरा और सुरक्षित लगता है. दुनियाभर की परेशानियों, मुसीबतों को छोड़ कर दो मिनट चैन की सांस लेने का मौका देता है घर.

इसी घर के बाहर 5 सितम्बर, 2017 की शाम को पत्रकार गौरी लंकेश की निर्मम हत्या की गई. गौरी उस वक़्त दफ़्तर से अपने घर लौट रही थी. 

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29 जनवरी 1962 को जन्मी एक पत्रकार थीं, गौरी. सच को जस का तस पेश करती थीं. न धार्मिक संगठनों को समर्थन करती थी और न ही पार्टी-नेताओं का. वो सिर्फ़ सच्चाई का और स्वतंत्र पत्रकारिता का समर्थन करती थीं. पिछड़ों को उनका हक़ दिलाने लेने से लेकर भारतीय समाज में औरतों की स्थिति, हर एक विषय में उनकी भागीदारीता रहती. लोकतंत्र पर मंडरा रहे ख़तरों को लेकर चिंतित थीं, सोशल मीडिया पर उनके पोस्ट्स इस बात का सुबूत हैं.

हालांकि कुछ धार्मिक संगठनों और गौरी के भाई इंद्रजीत ने भी उन पर आरोप लगाया था कि गौरी नक्सलवाद का समर्थन करतीं थीं. इन सब आरोपों को उन्होंने हमेशा ख़ारिज किया.

गौरी, बंगलुरू से कन्नड़ साप्ताहिक अख़बार ‘गौरी लंकेश पत्रिके’ प्रकाशित करती थीं. इस अख़बार में कोई विज्ञापन नहीं छपता था. निडर और बेबाक थीं गौरी. हिन्दुवादी संगठनों की हिंसात्मक गतिविधियों, जात-पात जैसी कुप्रथाओं और महिलाओं के हक़ के लिए लड़तीं और इन विषयों पर खुलकर लिखती थीं. उनके लेखों के लिए उन्हें Anna Politkovskaya Award से नवाज़ा गया.

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2003 में संघ परिवार, बाबा बुदन गिरी स्थित एक सूफ़ी स्थान, गुरू दत्तात्रेय बाबा बुदन दरगाह को हिन्दू स्थल में परिवर्तित करने पर आमादा था. गौरी ने इसका खुलकर विरोध किया.

कुछ लोगों का मानना है कि गौरी सिर्फ़ बीजेपी के खिलाफ़ ही लिखती थीं, लेकिन असल में गौरी प्रेस की स्वतंत्रता से समझौते के लिए तैयार नहीं थी. उन्होंने INC के नेता, डी.के.शिवकुमार के विरुद्ध भी लेख लिखे थे.

कर्नाटक के मुख्यमंत्री, सिद्दरमैया ने नक्सलवादियों को हथियार और ख़ून-ख़राबे का तरीका छोड़ने की बातचीत के लिए एक कमिटी का गठन किया था. गौरी भी इसी कमिटी की सदस्या थीं. इससे साफ़ ज़ाहिर होता है कि सरकार को भी उनके काम करने के तरीके पर यक़ीन था.

2008 में गौरी ने बीजेपी के कुछ नेताओं की धोखाधड़ी के बारे में एक लेख लिखा था. 2016 में उसी लेख के कारण उन्हें सज़ा मिली, 6 महीने की जेल और कुछ नक़द. लेकिन उन्हें बेल पर छोड़ दिया गया.

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The Wire से एक बातचीत में उन्होंने कहा था कि देश में अभिव्यक्ति की आज़ादी की हालत बद से बद्तर हो चली है. क्या उनकी ये चिंता बेमतलब की थी.

सोशल मीडिया पर भी वे वक़्त-बेवक़्त विभिन्न विषयों पर अपनी राय दिया करती थीं.

हत्या से एक दिन पहले गौरी ने किया था ये ट्विट-

‘मुझे समझ नहीं आता कि हममें से कुछ आपस में ही क्यों लड़ रहे हैं. हमें पता है कि हमारा सबसे बड़ा दुश्मन कौन है. क्या हम उस ओर ध्यान नहीं दे सकते?’

गौरी के दोस्तों और रिश्तेदारों को अब तक एक बहुत बड़े सवाल का जवाब नहीं मिला है, वो ये कि जब धार्मिक भावनाओं से खेलते संगठनों पर इतने सारे लोग अपनी बेबाक राय रखते हैं, तो सिर्फ़ गौरी को ही निशाना क्यों बनाया गया?

देश में आज़ादी के समय से पत्रकारों की हत्याएं होती रही हैं. पिछले कुछ सालों में इसमें सिर्फ़ एक दुर्भाग्यपूर्ण बदलाव आया. इनकी हत्या को सही ठहराने वालों की तादाद बढ़ी है. पार्टियों की आड़ में ख़ुद को छुपाये बैठे कथित देशप्रेमी, खुले-आम गौरी लंकेश जैसे पत्रकारों की हत्या पर लिख देते हैं.

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‘A bitch died a dog’s death and now all the puppies are wailing in the same tune.’

ये वो लोग थे, जिन्होंने किसी की निर्मम हत्या को सही ठहराने में ज़रा भी हिचक नहीं हुई.

हत्या के कई महीनों बाद, सीसीटीवी फ़ुटेज होने के बावजूद गौरी के हत्यारों का अब तक कुछ पता नहीं चला है.

गौरी आज हमारे बीच नहीं हैं, अगर कुछ है तो उनकी बेबाकी और साहस, प्रेस की स्वतंत्रता को लेकर उनकी लड़ाई. पत्रकारों ने इस देश को स्वतंत्र कराने में मुख्य भूमिका निभाई थी. पत्रकारों और सरकार के बीच मतभेद तो पहले भी हुआ करते थे, लेकिन अचानक इस तरह पत्रकारों को खुलेआम धमकाया जाना, धमकियां मिलना या फिर सीधे मौत के घाट उतार देना, ये सब बहुत नया है.

जहां तक हम समझते हैं कोई इतना खाली नहीं है कि अपना काम-काज छोड़कर एक लेखिका पर गोलियां दाग दें. नफ़रत के बाज़ार में नफ़रत की ख़रीद-फ़रोख़्त कर कईयों के चूल्हे जल रहे हैं. आप चाहें तो Whats App Text के हिसाब से अपनी Ideology बना सकते हैं, लेकिन इस बात से इंकार भी नहीं कर सकते कि जिस गौरी को हिन्दू-विरोधी और नक्सल-समर्थक कहा गया उनकी अंतिम यात्रा में 15000 के लगभग लोग आये थे. उम्मीद है गौरी को दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में न्याय मिले.

Feature Image Source- News Laundry