एक समय था जब ब्रिटिश राज का सूर्य कभी अस्त नहीं होता था. इसकी सबसे बड़ी वजह विश्व के सभी देशों को गुलाम बनाना था. दूसरे शब्दों में इसे उपनिवेश कहते थे. सन् 1800 में इंग्लैण्ड में औद्योगिक क्रांति की शुरुआत हुई. ऐसे में ब्रिटेन ने एशिया, अफ्रीका और ऑस्ट्रेलिया में उपनिवेशवाद की शुरुआत की. इन सब देशों के लिए एक बड़ी संख्या में मज़दूरों की ज़रूरत महसूस की गई. इस ज़रूरत को पूरी करने के लिए ब्रिटिश शासक अविभाजित हिन्दुस्तान से मेहनती, व ईमानदार मज़दूरों को ले जाते थे. बाद में इन्हीं मज़दूरों को ‘गिरमिटिया मज़दूर’ कहा जाने लगा.
विशेष नोट- इसे आप एक स्टोरी की तरह न पढ़ें, तो बेहतर है. दरअसल यह एक ऐसा दर्द है, जिसका घाव आज 180 सालों बाद भी नहीं भरा है.
वो वक़्त ऐसा था, जब ग़रीबी, लाचारी, बेरोजगारी और भुखमरी से त्रस्त हिन्दुस्तान की जनता एक सुकून की ज़िंदगी चाहती थी. उनके लिए सुकून का मतलब सिर्फ़ एक छत, दो वक़्त की रोटी और तन पर कपड़े से ही था. गुलाम देश में हालात इतने बदतर थे कि उस समय के हिन्दुस्तानियों को ये भी नसीब नहीं हो पाता था. ऐसे में चालाक अंग्रेज उन्हें एग्रीमेंट पर काम दिलवाने के बहाने अपने देश से दूर अनजान देशों में ले जाते थे. वो देश ऐसा होता था, जहां कोई अपना नहीं होता था. अपनों से दूर होने के ग़म में ये मज़दूर इतने टूट जाते थे कि कई दिनों तक इन्हें नींद नहीं आती थी. रोते थे, बिलखते थे और स्थिर हो जाते थे. एग्रीमेंट के चक्कर में ये घर भी वापस नहीं आ पाते थे. ये सिलसिला कई सालों तक चलता रहा. अंत में इन मज़दूरों को पराये देश को अपना बनाना पड़ा. इनका सब कुछ छूट चुका था, मगर अपनी संस्कृति को अपने दिलों में बसाए रखें. अब ये गिरमिटिया मज़दूर नहीं रहे, बल्कि मालिक हो गए हैं. वे अपना विकास तो करते ही हैं, भारत के विकास में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं. अब पूरी कहानी विस्तार से बताते हैं.
जब ‘एग्रीमेंट‘ बना ‘गिरमिटिया‘
अंग्रेजों ने भारतीयों के सस्ते मजदूर होने का फायदा उठाया और अपने उपनिवेश वाले तमाम देशों में उन्हें काम करने के लिए ले गए. इन लोगों को ‘एग्रीमेंट पर लाया गया मजदूर’ कहा गया. एग्रीमेंट शब्द आगे चलकर ‘गिरमिट’ और फिर ‘गिरमिटिया’ शब्द में बदल गया.
इन देशों में करते थे मज़दूरी
ये लोग मॉरीशस, सूरीनाम, फिजी, सेशेल्स और वेस्टइंडीज में गए. आज इनमें से कई देशों के राष्ट्र प्रमुख तक भारतीय मूल के हैं.
फिजी था गिरमिटियों का पहला ठिकाना
महात्मा गांधी खुद को पहला गिरमिटिया कहते थे. हालांकि 18वीं सदी में भारत से पहले गिरमिटिया मजदूरों की खेप फिजी पहुंची थी. भारतीय मजदूरों को वहां गन्ने के खेतों में काम करने के लिए ले जाया गया था, ताकि इंग्लैण्ड की स्थानीय संस्कृति को बचाया जा सके और यूरोपीय मालिकों को फायदा भी पहुंचाया जा सके. आज फिजी की 9 लाख की आबादी में साढ़े तीन लाख से अधिक भारतीय मूल के लोग हैं. यहां तक कि फिजी की भाषा भी फिजियन हिंदी है.
मेहनती होते हैं भारतीय
फिजी और दक्षिण अफ्रीका जैसे देश में स्थानीय लोगों को भारतीयों से केवल इसलिए चिढ़ है क्योंकि वे कड़ी मेहनत करते हैं. कारोबार और उद्यम के मामले में वे वहां के स्थानीय समुदाय पर भारी पड़ते हैं.
रीढ़ की हड्डी हैं
गिरमिटिया मज़दूरों तथा विदेशी नागरिकता ले चुके लोगों के अलावा देश के करीब 2.5 करोड़ लोग ऐसे हैं, जो अनिवासी भारतीयों के रूप में बाहर रह रहे हैं. वे न केवल उन देशों की अर्थव्यवस्था में अपना योगदान दे रहे हैं जहां वे रहते हैं, बल्कि वे भारत धन भेजकर अपने देश की अर्थव्यवस्था में भी मदद कर रहे हैं.
आधुनिक गिरमिटिया मज़दूर
बहरहाल यह तो हुई गिरमिटिया मजदूरों की बात. अब बात करते हैं आधुनिक प्रवासियों की. फिर चाहे बात अमेरिका के आईटी सेक्टर की हो या सऊदी अरब के कंस्ट्रक्शन, दुबई के इंजीनियर्स या ब्रिटेन के कारोबारियों की, भारत के लोग हर जगह छाए हुए हैं.
विदेशियों से ज़्यादा कमाते हैं हिन्दुस्तानी
अमेरिका में 50 लाख भारतीय रहते हैं. एक औसत अमेरिकी जहां सालाना 50,000 डॉलर कमाता है, वहीं एक औसत भारतीय वहां 90,000 डॉलर कमाता है.
वहीं ब्रिटेन की बात करें तो वहां 19 लाख भारतीय रहते हैं. वहां गोरों के बाद सबसे अधिक संख्या में भारतीय नागरिक ही रहते हैं.
सऊदी अरब की इंजीनियरिंग और भवन निर्माण इंडस्ट्री भारतीयों के ही भरोसे चल रही है. वहां करीब 30 लाख भारतीय रहते हैं.