हिंदू धर्म में हर पर्व-त्योहार का अपना एक अलग महत्व है. लेकिन बात जब उत्तर भारत की हो, तो छठ पूजा को सबसे बड़ा त्योहार माना जाता है. छठ व्रत भगवान भास्कर और छठी मईया की उपासना का पर्व है. इसकी महत्ता का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि चार दिनों तक होने वाला छठ पर्व केवल एक पर्व नहीं है, बल्कि महापर्व है. उत्तर प्रदेश और खासकर बिहार की अस्मिता से जुड़ा यह महापर्व आस्था का सबसे बड़ा उदाहरण है. हालांकि, अब यूपी-बिहार की सीमा से परे इस पर्व को पूरे देश में धूम-धाम से मनाया जाता है.

कार्तिक शुक्ल पक्ष की षष्ठी को मनाये जाने वाला छठ व्रत बांस से बने सूप, टोकरी, मिट्टी के बरतनों, गन्ने, गुड़, चावल और गेहूं से बने प्रसाद और सुमधुर लोकगीतों से युक्त होकर लोक जीवन की भरपूर मिठास का प्रसार करता है. नहाए-खाए से इसकी शुरुआत होती है, जो डूबते और उगते सूर्य को अर्घ्य देकर समाप्त होती है. वैसे तो यह पर्व साल में दो बार मनाया जाता है, लेकिन ‘कार्तिक छठ’ का अपना एक विशेष महत्व है. संतान, पारिवारिक सुख-समृद्धि और मनवांछित फल प्राप्ती के लिए यह पर्व मनाया जाता है.

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छठ पूजा का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष इसकी सादगी, पवित्रता और लोकपक्ष है. छठ पर्व को किसने शुरू किया और क्या है इसका ऐतिहासिक और पौराणिक महत्व, इसके पीछे कई कहानियां और मान्यताएं प्रचलित हैं. तो चलिए इस आस्था के सागर में डूबकी लगाते हैं…

सूर्य की उपासना और राजा प्रियंवद दंपति को संतान प्राप्ति

एक कथा के अनुसार, राजा प्रियंवद को कोई संतान नहीं थी. महर्षि कश्यप ने पुत्र की प्राप्ति के लिए राजा को यज्ञ करने को कहा और उनकी पत्नी मालिनी को यज्ञाहुति के लिए बनाई गई खीर दी. इससे रानी को पुत्र तो हुआ, पर वो मरा हुआ. प्रियंवद पुत्र के शव को लेकर श्मशान गये और पुत्र वियोग में प्राण त्यागने की ठान ली. तभी सृष्टि की मूल प्रवृत्ति के छठे अंश से उत्पन्न हुई भगवान की मानस पुत्री देवसेना प्रकट हुईं और राजा से कहा कि उनकी पूजा करने से संतान सुख की प्राप्ति होगी. राजा प्रियंवद और रानी मालती ने देवी षष्ठी का व्रत किया और उन्हें पुत्र की प्राप्ति हुई और तभी से छठ पूजा शुरू हुई.

जब कर्ण को मिला भगवान सूर्य से वरदान

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एक मान्यता के अनुसार, छठ पर्व की शुरुआत महाभारत काल में हुई थी. जिसकी शुरुआत सबसे पहले सूर्यपुत्र कर्ण ने माता को कलंक से मुक्ति दिलाने के लिए सूर्य की पूजा करके की थी. कर्ण भगवान सूर्य के परम भक्त थे और वो रोज घंटों कमर तक पानी में खड़े होकर सूर्य को अर्घ्य देते थे. सूर्य की कृपा से ही वह महान योद्धा बने थे. आज भी छठ में जल में खड़े होकर अर्घ्य दान की यही परंपरा प्रचलित है. बिहार में मान्यता ये भी है कि छठ पूजा के दौरान पानी में खड़े होने मात्र से चर्म रोग ठीक हो जाते हैं.

राजपाठ की वापसी के लिए द्रोपदी ने भी रखा था छठ व्रत

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छठ पर्व के बारे में एक कथा और भी है. इस किवदंती के मुताबिक, जब पांडव सारा राजपाठ जुए में हार गए, तब राजपाठ की वापसी के लिए द्रोपदी ने छठ व्रत रखा था. इस व्रत से उनकी मनोकामना पूरी हुई थी और पांडवों को सब कुछ वापस मिल गया. लोक परंपरा की माने, तो सूर्य देव और छठी मईया का संबंध भाई-बहन का है. इसलिए छठ के मौके पर सूर्य की आराधना फलदायी मानी जाती है.

माता सीता ने भी की थी सूर्यदेव की पूजा

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एक अन्य कथा के मुताबिक, जब भगवान राम और सीता 14 वर्ष के वनवास के बाद अयोध्या लौटे, तब राम राज्य की स्थापना के दिन कार्तिक शुक्ल षष्ठी को भगवान राम और माता सीता ने उपवास किया और सूर्यदेव की आराधना की. ऐसा कहा जाता है कि माता सीता ने महर्षि मुद्गल के आश्रम में रहकर छह दिनों तक सूर्यदेव की पूजा की थी. Feature image