‘एक औरत को एक औरत ही समझ सकती है’. शायद यही वो लाइन है, जिसकी वजह से इश्मत चुगताई ने ‘लिहाफ’ और अमृता प्रीतम ने ‘पिंजर’ जैसी कहानियां लिख कर एक औरत की इच्छाओं और इच्छाओं पर समाज की बंदिशों को दुनिया के सामने रखा, तो Simone de Beauvoir ने ‘Second Sex’ के ज़रिये पुरुष प्रधान समाज को आईना दिखाया. कहने को हम ये भी कह सकते हैं कि जब एक औरत किसी औरत को आधार बना कर कोई कहानी या किताब लिखेगी, तो उसे दर्द, उत्पीड़न के दायरे में ही समेटेगी, पर यही काम यदि कोई पुरुष करे, तो आप क्या कहेंगे? हालांकि ऐसा बहुत ही कम देखने को मिलता है कि कोई पुरुष किसी औरत में सौंदर्य, प्रियतम और प्रेरणा को देखे बिना कुछ लिखे, पर कुछ ऐसे भी पुरुष लेखक रहे हैं, जिन्होंने वास्तविकता का सहारा लेते हुए बिना किसी तोल-मोल के वही कहा, जो उन्होंने देखा. 

आज हम आपको कुछ ऐसे ही पुरुष लेखकों के बारे में बता रहे हैं, जिन्होंने बड़ी ही बारीकी और सच्चाई से औरतों को साहित्य में जगह दी.

शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय

देवदास जैसी कालजयी रचना करने वाले शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय की नज़रें बड़ी ही पारखी थीं, जो एक ही शख़्स के इर्द-गिर्द घूमती हुई दो औरतों की कहानियों को उन्होंने बड़ी ही संजीदगी से लोगों के सामने रखा. इसके अलावा ‘परिणीता’ और ‘चरित्रहीन’ में उन सभी दावों को खोखला करके रख दिया, जो ये कहती हैं कि एक पुरुष, औरतों में केवल अपनी प्यास देखता है.

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धर्मवीर भारती

‘गुनाहों का देवता’ अपने दौर का सबसे चर्चित उपन्यास रहा है. इसमें लिखी प्रेम कहानी पढ़ते वक़्त कहीं भी ऐसा नहीं लगता कि ये सिर्फ एक कहानी है. ऐसा लगता है, जो घट रहा है वो ही शब्दों के ज़रिये आंखों के सामने आ रहा है. समाज के दायरे में एक औरत किस तरह इज़्ज़त के दलदल में फंस जाती है और लाख कोशिशों के बावजूद उस दलदल से नहीं निकल पाती, धर्मवीर भारती इसे बहुत बारीकी के साथ कहते हैं.

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खुशवंत सिंह

खुशवंत सिंह ने एक बार खुद को सबसे अय्याश बूढ़ा कहा था, इसका लोग अलग-अलग मतलब निकाल सकते हैं, पर एक लेखक के रूप में देखा जाये, तो उनकी यह बात उनकी कहानियों में साफ़ दिख जाती है. ‘A Bride for the Sahib’ के ज़रिये उन्होंने महिलाओं के उस दर्द को उभारने की कोशिश की है, जो तिरस्कार और विरह की आग में पल-पल जलती हैं.

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राजेन्द्र सिंह बेदी

‘प्रगतिशील लेखक संघ’ का हिस्सा रहे राजेन्द्र सिंह बेदी उर्दू भाषा में लिखने वाले ऐसे लेखक थे, जिन्होंने न केवल शब्दों से, बल्कि फिल्मों से भी औरतों का चित्रांकन किया. ‘एक चादर मैली सी’ उनकी कुछ उन्हीं रचनाओं में से एक है, जिसमें उन्होंने समाज के ढकोसलों में फंसी एक ग्रामीण स्त्री का चित्रण किया है.

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रबीन्द्रनाथ टैगोर

भारतीय राष्ट्रगान के जनक रबीन्द्रनाथ टैगोर एक ऐसी शख़्सियत थे, जिन्हें कभी एक दायरे में बांधा ही नहीं जा सकता. ऐसी ही शख़्सियत उनकी कहानियों और कविताओं में भी देखने को मिलती है, जो कभी ‘भिखारिन’ लिख कर धन और ममता के बीच फंसती है, तो कभी ‘बहुत वासनाओं पर मन से’ लिख कर ‘गीतांजलि’ की रचना करती है.

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लियो टॉलस्टॉय

लियो टॉलस्टॉय द्वारा लिखित ‘आन्ना करेनिना’ उन गिने-चुने उपन्यासों में से एक है, जो आज भी उतने ही चाव से पढ़ा जाता है, जितना कि 100 साल पहले. इस उपन्यास के ज़रिये टॉलस्टॉय ने एक ऐसी स्त्री की कहानी कही है, जो समाज की तमाम बंदिशों के बावजूद खुल के जीना चाहती है. पर ये बंदिशें उस पर इतनी हावी हो जाती हैं कि उसके प्राण लेकर भी एक सवाल छोड़ जाती हैं.

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मंटो

मंटों की किसी कहानी को पढ़ते वक़्त ऐसा लगता ही नहीं कि आप कोई कहानी पढ़ रहे हैं, बल्कि ऐसा लगता है कि उसके किरदार खुद आपसे बातें कर रहे हैं. महिलाओं पर लिखने की बात हो, तो शायद ही कोई ऐसा रहा है, जिसने शिद्दत और बेबाकी के साथ महिलाओं का चित्रण किया हो. ‘काली सलवार’ में जहां मंटों औरत की तृष्णा को सामने रखते हैं, तो वहीं ‘लाइसेंस’ और ‘शारदा’ में उनकी मज़बूरियों और पुरुष प्रधान समाज में औरत की स्थिति को दर्शाते हैं.

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