आज से 11 साल पहले दिल्ली आई थी. इसने मुझे काफ़ी समय के बाद अपने दिल में बसाया था. उसके बाद से जैसे हम दोनों ने एक-दूसरे की सभी अच्छाई और बुराई को अपना लिया. फिर ये मुझे अपनी सी लगने लग गई. मगर इसकी एक बात मुझे कभी-कभी अखरती है वो यहां का शोर-शराबा. यहां की धुएं से भरी सड़कें. सच कहूं तो यहां रहते-रहते मुझे इन चीज़ों में ही सुकून मिलने लग गया था.
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मगर पिछले दिनों पता चला कि असली सुकून क्या होता है? दरअसल, कुछ दिनों पहले मैं सिक्किम गई थी. जगह नई थी, लोग नए थे तो थोड़ा डर लग रहा था. हालांकि, अकेले नहीं थी, लेकिन नई जगह जाने पर मुझे डर लगता है. वहां पर भी लग रहा था. जब एयरपोर्ट पर ड्राइवर लेने आया तो हमने बागडोगरा से पीलिंग का सफ़र तय करना शुरू किया. उस 6 घंटे के सफ़र में मैंने जो सुकून पाया उस सुकून ने मेरे डर को थोड़ा कम कर दिया.
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उसके बाद जब होटल पहुंचे तो वहां लोगों ने जितने प्यार और शांत स्वभाव से बात की उस चीज़ को देखकर तो डर ग़ायब ही हो गया. पीलिंग में मंदिर के साथ-साथ कई जगह घूमें. वहां के मंदिर में एक शांत सा संगीत बज रहा था, जो भले ही समझ नहीं आ रहा था लेकिन उसमें सुकून का एहसास था.
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पीलिंग से शुरू हुआ तीन दिन का ये सफ़र गंगटोक में ख़त्म हुआ और यक़ीन मानिए इन तीन दिनों में हमने तेज़ आवाज़, ट्रैफ़िक की कान फाड़ देने वाली आवाज़ और गंदगी न तो सुनी और देखी. जगह-जगह वहां पर मंत्र लिखे हुए झंडे लगे हैं, जो मन को शांति दे रहे थे.
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वहां का खाना भी वहां के लोगों की तरह साधारण सा था. खाने में ज़्यादा तेल-मसाले का इस्तेमाल नहीं करते हैं. हम ठहरे दिल्लीवाले सुकून तो सही था लेकिन खाने ने हमें रुला दिया. हम तीन दिन स्पाइसी खाने के लिए तरस गए. मगर कहते हैं कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है, तो हमने स्पाइसी खाना भले ही नहीं खाया, लेकिन सुकून पा लिया था.
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दिल्ली की भागमभाग वाली ज़िंदगी से दूर उस ज़िंदगी ने मुझे तीन दिन में एक नई एनर्जी दे दी. अगर कभी मौक़ा मिले तो एक बार सिक्किम जाने के बारे में सोचिएगा. आप भी मेरी बात से सहमत होंगे और आने के बाद मुझे थैंक्यू ज़रूर बोलेंगे.
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