ट्रेन के सफ़र की बहुत सारी यादें सबके पास होंगी. किसी की अच्छी यादें होंगी तो किसी की बुरी. अच्छा मेरा क्या है मैं जब ट्रेन में जाती हूं तो खिड़की वाली सीट पर बैठती हूं मुझे बड़ा अच्छा लगता है. खिड़की से बाहर देखना. हवा को महसूस करना. मगर जिस सफ़र के बारे में मैं आज बताऊंगी वो ऐसा नहीं था.
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कुछ साल पहले मैं अपने नाना जी की मृत्यु पर कानपुर गई थी. उस वक़्त मैं दिल्ली के एक न्यूज़ चैनल में इंटर्न थी, तो मुझे ज़्यादा पता नहीं था. इसलिए जैसे ही नाना जी के अंतिम संस्कार की विधियां पूरी हुईं. मैंने दिल्ली के लिए रवानगी ले ली.
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मुझे पक्का नहीं पता था किस दिन वापसी करूंगी तो मैंने रिज़र्वेशन भी नहीं कराया था. मगर घर पर सबलोग कह रहे थे अरे लड़की को बैठने के लिए जगह दे देते हैं. परेशान मत हो आराम से जाओ और सीट मिल जाएगी. घरवालों की बातों ने थोड़ी हिम्मत बंधाई और मैं घर से रेलवे स्टेशन के लिए निकल गई. स्टेशन पर मैंने जनरल टिकट लिया और मेरे पहुंचने के थोड़ी देर बाद ही ट्रेन आ गई.
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ट्रेन आते ही मैं उसके अंदर गई और सीट जो खाली मिली उस पर बैठ गई. लोगों के आने-जाने का सिलसिला ट्रेन में चल रहा था तभी मैं जिस सीट पर बैठी उसमें एक अंकल आए और बोले ये मेरी सीट है आप उठिए. उनका ये बोलना मुझे समझ नहीं आया क्या बोलूं तो मैं सीट से उठ गई.
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फिर मुझे सबकी बात याद आई तो मैंने डर कर अंकल से कहा मेरी सीट नहीं है तो क्या आप मुझे अपनी सीट पर बैठने देंगे? क्योंकि वो दिसंबर का महीना था और ट्रेन में बहुत ठंड भी थी. इसलिए भी मैंने उनसे सीट लेना चाहा. मगर उन्होंने मुझे कोई पॉज़ीटिव जवाब नहीं दिया. तब मैं समझ गई ये मुझे अपनी सीट पर नहीं बिठाएंगे. वहां बैठे और लोगों ने भी सीट नहीं दी, लेकिन मुझे नीचे अख़बार बिछाने की सलाह ज़रूर दे दी. फिर थोड़ी देर बाद मुझे यही करना पड़ा और मैं नीचे अख़बार बिछाकर सो गई. वैसे तो बहुत से लोग जो जनरल टिकट पर स्लीपर कोच में बैठ जाते हैं, नीचे बैठकर ही यात्रा करते हैं, पर मेरे लिए ये नया अनुभव था, जिसकी यादें कुछ खट्टी, तो कुछ मीठी हैं.
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आज जब उस बात को याद करती हूं तो अच्छी भी लगता है और बुरा भी कि उस ट्रेन में इतने सारे लोगों में से एक ने भी मेरी हेल्प नहीं की.
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Illustrated By: Aprajita Mishra