ऊपर खुला आसमान, ज़मीन पर बिछी बोरियां और उन बोरियों पर बैठा देश का भविष्य. पहली नज़र में ये नज़ारा किसी गांव के सरकारी स्कूल का लगता है, पर ऐसा ही कुछ दृश्य उत्तर प्रदेश के मिर्ज़ापुर से कुछ किलोमीटर दूर कच्छवा माझी पट्टी में भी देखने को मिलता है, जहां एक मास्टर जी खेत के किनारे बने बगीचे में पिछले 20 सालों से देश का भविष्य संवारने में लगे हुए हैं.

कहने को तो ये एक आम-सी बात लगती है, पर मास्टर जी की कहानी जानने के बाद शायद ये कहानी आम नहीं रह जाती.

बचपन में माता-पिता का हाथ सर से उठना क्या होता है, इसे शायद आप और मैं नहीं समझ सकते हैं. इसके बावजूद खुद को इस काबिल बनाना कि वो मेडिकल की परीक्षा में बैठ सकें और एक कॉलेज में दाखिल ले सकें, किसी संघर्ष से कम नहीं. पर सब कुछ वैसा ही हो, जैसा हम चाहते हैं, ऐसा बहुत ही कम देखने को मिलता है. कुछ ऐसा ही गोपाल जी के साथ भी हुआ, जो मेडिकल कॉलेज में दाखिला लेने के बाद जब घर की तरफ आ रहे थे तब रास्ते में एक एक्सीडेंट का शिकार हो गए. इस एक्सीडेंट में गोपाल जी की जान तो बच गई, पर ज़िन्दगीभर के लिए कमर से नीचे का हिस्सा लकवाग्रस्त हो गया और उनकी ज़िन्दगी व्हीलचेयर पर आ कर थम गई. जिस वक़्त इंसान को परिवार की सबसे ज़्यादा ज़रूरत होती है, उसी वक़्त में परिवार ने भी मुंह मोड़ लिया. गोपाल जी के दोनों भाइयों ने उनसे किनारा कर लिया और अपनी-अपनी ज़िन्दगी में मशरूफ हो गए.

ये गोपाल जी की हिम्मत ही थी, जो इतना सब कुछ होने के बावजूद उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और एक दोस्त के सहारे मिर्ज़ापुर पहुंचे, जहां उन्हें दोस्त की सिफारिश पर एक छत मिली. यहां पहुंचने के बाद गोपाल जी ने देखा कि जिस देश के भविष्य को स्कूल में आने वाले कल की आधारशिला रखनी चाहिए थी, वो यहां गलियों में आवारा, गलियां देते हुए घूम रहा है. गांव में कोई स्कूल न होने की वजह से बच्चे सारा दिन गलियों में आवारागर्दी करते रहते, कभी किसी से लड़ाई करते, कभी चोरी करते. देश के भविष्य को इस तरह से बर्बाद होता देख गोपाल जी ने खुद ही उसे संवारने का जिम्मा उठाया और एक स्कूल चलाना शुरू किया. इस स्कूल में दीवारों और छत के नाम पर थे, तो बस बगीचे में खड़े पेड़ और ऊपर खुला नीला आसमान, जिसकी ओट में कक्षाएं चलनी शुरू हुईं और कब 20 साल गुजर गए, खुद गोपाल जी को नहीं पता चला.

इन 20 सालों में सरकारें आईं-गईं और पीछे छोड़ गईं, तो बस झूठे दिलासे और चुनावी वादें. जो कभी कहती कि गोपाल जी के लिए पेंशन की व्यवस्था करेंगे, कभी कहती इस बार चुनाव जीतने पर स्कूल की बिल्डिंग पक्का, पर चुनावों के बाद ये वादे खोखले ही साबित होते.

स्कूल की फीस के नाम पर गांव वाले गोपाल जी को दो वक़्त की रोटी तो दे देते हैं, पर वो सम्मान और हक़ कहां हैं, जो उन्हें सरकार और प्रशासन से मिलना चाहिए था?

उनके द्वारा पढ़ाये गए कई छात्र सरकारी नौकरी में सेवाएं दें रहे हैं, पर गोपाल जी आज भी बिना किसी वेतन और पेंशन के इस देश की बुनियाद को मज़बूत कर रहे हैं.

एक तरफ ऐसे लोगों की कमी नहीं, जो आये दिन सरकार और प्रशासन से देश सेवा के नाम पर खुलने वाले NGO के लिए पैसा ले कर अपनी जेबें भर रहे हैं. दूसरी तरफ सरकार के पास ऐसे लोगों की सुध लेने का ही समय नहीं, जो नि:स्वार्थ भाव से एक मज़बूत देश की आधारशिला रख रहे हैं.