इतिहास में बहादुरशाह ज़फ़र का नाम एक ऐसे शासक के रूप में दर्ज है, जिसने आज़ादी के मतवालों की फ़ौज का नेतृत्व किया और 1857 की क्रांति की बागडोर संभाली. अंग्रेजों के आधुनिक हथियारों और संगठित सेना के सामने 1857 में उठी क्रांति की चिंगारी मशाल बनने से पहले ही बुझ गई. इसका खामियाज़ा ये हुआ कि बहादुरशाह ज़फ़र को कैद करके आजीवन कारावास के लिए रंगून भेज दिया गया, जहां 7 नवम्बर 1862 में उनकी मृत्यु हो गई. इसके साथ ही उनके बेटों मिर्ज़ा मुग़ल और मिर्ज़ा ख़िज़्र सुल्तान के साथ उनके पोते मिर्ज़ा अबु बकर को दिल्ली के खूनी दरवाज़े पर मार दिया गया.

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ये तो वो जानकारियां हैं, जो बचपन से ही हम बहादुरशाह ज़फ़र के बारे में पढ़ते और सुनते आ रहे हैं, पर आज जब हम बड़ी-बड़ी किताबों के ज़रिये साहित्य का चिंतन करने लगे हैं, क्या बहादुरशाह ज़फ़र के बारे में इतनी जानकारी हमारे लिए काफी है?

उर्दू अदब में बहादुरशाह ज़फ़र का नाम उसी पाकीज़गी और शिद्दत से लिया जाता है, जिस शिद्दत और पाकीज़गी से मीर-तक़ी-मीर और मिर्ज़ा असद-उल्लाह ख़ां उर्फ़ ग़ालिब नवाज़े जाते हैं.

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आज हम आपको बहादुरशाह ज़फ़र के जीवन के उस पहलू से रूबरू कराने की कोशिश कर रहे हैं, जो दरबारों की चकाचौंध से दूर मोमबती की धीमी रौशनी के साथ कागज़ और क़लम के साथ बीता करता था. मोमिन से लेकर मिर्ज़ा ग़ालिब, जिसके दरबार की शोभा बढ़ाते थे, वो बहादुरशाह ज़फ़र खुद एक बहुत बड़े शायर थे. उर्दू और फ़ारसी के लफ्ज़ उन्हें इस तरह हिज्र थे कि जब वो बात भी करते थे, तो ऐसा लगता था कि मानो उन्होंने फिर कोई शेर कहा हो. आज हम आपके लिए बहादुरशाह ज़फ़र की कुछ ऐसी ही नज़्मों को लेकर आये हैं, जिन्हें सुनकर आप भी उनके कायल हो जायेंगे.

लगता नहीं है दिल मेरा उजरे दायर में….

ये ग़ज़ल कब कही गई, इसके बारे में ठीक-ठीक कोई अंदाज़ा नहीं है, पर ग़ज़ल को सुनते वक़्त आप उस दौर में खो जाते हैं, जब हिन्द के हुकूमत की लड़ाई में बादशाह की चिंता जगजाहिर हो उठी थी.

न किसी की आंख का नूर हूं…

बेशक आज के हिप-हॉप और रॉक म्यूजिक के ज़माने में ये ग़ज़ल आपको बहुत धीमी लगे, पर जैसे ही एक बार इस ग़ज़ल को समझना शुरू कर देते हैं. आप उस दुनिया में खो जाते हैं, जहां आप अपनी ज़िन्दगी के मकसद को ढूंढने में कामयाब हो जाते हैं.

थे कल जो अपने घर में वो महमां कहां हैं?

बहादुरशाह ज़फ़र भी उन शायरों में से एक थे, जिनकी ग़ज़लों में कभी रुमानियत को छूता हुआ इश्क़ दिखाई देता है, तो कभी जम्हूरियत का दर्द छलक उठता है. ऐसी ही ग़ज़लों में से एक है.

थे कल जो अपने घर में वो महमां कहां हैं

जो खो गये हैं या रब वो औसां कहां हैं

आंखों में रोते-रोते नम भी नहीं अब तो

थे मौजज़न जो पहले वो तूफ़ां कहां हैं

कुछ और ढब अब तो हमें लोग देखते हैं

पहले जो ऐ “ज़फ़र” थे वो इन्सां कहां हैं

बात करनी है मुश्किल, मुझे ऐसे तो न देख

ग़ालिब का एक मशहूर शेर है कि

कोई मेरे दिल से पूछे तेरे तीर-ए-नीम कश को

ये खलिश कहां से होती, जो जिगर के पार होता

इस अकेले शेर में ग़ालिब ने अपनी महबूबा को उस जगह छोड़ दिया, जब वो उसे तिरछी निगाहों से देख कर चली जाती है. जबकि बहादुरशाह ज़फ़र उस वक़्त को थाम लेते हैं और कहते हैं कि अब तुमसे कैसे और क्या बात कहें, क्योंकि यहां तो सिर ही उठा कर बात करने में ही मुश्किलात हो रही है.

बहादुरशाह ज़फर उन गिने-चुने लोगों में से एक हैं, जिनका नाम सिर्फ़ हिंदुस्तान में नहीं बल्कि पाकिस्तान के साथ-साथ बांग्लादेश में बड़े ही अदब के साथ लिया जाता है. हिंदुस्तान और पाकिस्तान में जहां उनके नाम एक सड़क है. वहीं बांग्लादेश के ओल्ड ढाका स्थित विक्टोरिया पार्क का नाम बदल कर बहादुरशाह ज़फर पार्क रखा गया है.