भगवान कृष्ण स्त्री अधिकारों के अनन्य योद्धा हैं. वे जीवन भर एक पूर्ण नारीवादी की भूमिका में थे. उनकी जन्मभूमि ब्रज में राधा एक बेहद सम्मानित, श्रेष्ठ और पूज्य स्त्री हैं, स्वयं कृष्ण भी उनकी सेवा करते हैं. राधा इतनी सबल हैं कि उनके नेतृत्व में सखियों की पूरी पलटन खड़ी है.
वे ब्रज की रक्षा करती हैं, उसके पर्यावरण की हिफाज़त करती हैं और ऐसी सुदृढ़ व्यवस्था बनाती हैं कि उनके इलाके में आने पर महाबली और अत्याचारी कंस भी स्त्री बन जाता है.
वही कंस, जिसे मारने के लिए भगवान को अवतार और लीला की जरूरत पड़ी. राधा रानी के नेतृत्व में सखियां बरसाने में उससे उपले थपवाती हैं और वह बहुत हारकर और गिड़गिड़ा कर वापस जाता है. कंस दोबारा इस क्षेत्र की ओर देखता नहीं.
अगर कृष्ण के असीम सामर्थ्य के पीछे राधा रानी के प्रेम की शक्ति है, तो राधा के पीछे भी कृष्ण खड़े हैं. दूसरी तरफ द्रौपदी हैं जो कि उच्च कुलीन हैं, साम्राज्ञी हैं और पांच महाबलियों की पत्नी हैं, लेकिन बार-बार स्त्री होने के कारण अपमानित होती हैं. कृष्ण हर जगह उनकी रक्षा के लिए पहुंच जाते हैं. राजदरबार हो, वन हो या रणक्षेत्र हो, हर जगह कृष्ण द्रौपदी को दिया हुआ वचन पूरा करते हैं और उनके सखा के रूप में उपस्थित रहते हैं. कृष्ण यह कहीं नहीं मानते कि स्त्री की रक्षा का जिम्मा उसके पति का ही है. न ही वे यह मानते हैं कि स्त्री की रक्षा का दायित्व राज्य या समाज की व्यवस्था तक सीमित है. जहां भी ऐसी व्यवस्था भंग होती है, वहां वे स्त्री रक्षा के लिए खड़े मिलते हैं.
कृष्ण कहीं भी यह बहाना नहीं करते कि राजभवन की मर्यादा है, पतियों के सम्मान का बंधन है या कुल गोत्र की गरिमा है. कृष्ण के लिए दिन-रात, वन, प्रासाद सभी से ऊपर है स्त्री सम्मान और उसकी मर्यादा और वे उसकी रक्षा के लिए किसी भी सीमा तक जा सकते हैं. इसलिए आज समाज जिस दिशा में बढ़ रहा है और स्त्रियों के साथ छेड़खानी, बलात्कार, दहेज हत्या और ऑनर किलिंग जैसे तमाम अपराध जिस प्रकार हो रहे हैं, उसे दूर करने के लिए उन्हीं के जैसे किसी योद्धा की आवश्यकता है. स्त्रियों की स्वाधीनता, उनके सबलीकरण और सामर्थ्य के लिए फिर कृष्ण को आना ही होगा.
भगवताचार्यों और रसाचार्यों ने कृष्ण को महज प्रेम की मूर्ति बनाकर खड़ा कर दिया है, लेकिन वे स्त्री अधिकारों के लिए कदम-कदम पर लड़ने वाले महाबली हैं. स्त्रियों की तरफ से लड़ने वाले इस युद्ध में वे उनसे कुछ लेना भी नहीं चाहते, वे सिर्फ उन्हें सबल और स्वाधीन देखना चाहते हैं. यही कारण है कि वे उनसे सखा भाव बनाते हैं, दास्यभाव नहीं और उन्हें सम्मान देकर और दिलाकर आगे चल देते हैं.
चूंकि मानव मन हमेशा स्वार्थ ही देखता है और यह सोच नहीं सकता कि कोई पात्र, कोई चरित्र अनायास ही किसी की मदद कैसे कर सकता है, इसलिए उसने द्रौपदी और राधा के संबंधों में स्वार्थ देखने की कोशिश की है. जबकि वैसा कुछ है ही नहीं. संबंधों में स्वार्थ देखने की इसी धारणा ने स्त्रियों के पक्ष में खड़े होने वाले पुरुषों के स्वार्थ देखे हैं. पर निष्काम योगेश्वर कृष्ण ने कभी इस बात की परवाह नहीं की. इसीलिए उन्होंने भौमासुर के बंदीगृह से मुक्त कराई गई सोलह हजार स्त्रियों का पति बनना स्वीकार किया क्योंकि उनके कायर पति उन्हें स्वीकार करने को तैयार नहीं थे. आज कृष्ण के इस सिद्धान्त को समझने और उसके यथार्थ को धरातल पर साकार करने की ज़रूरत है.
आवश्यकता उन नारी पात्रों को स्वीकार करने और सम्मान देने की है, जो तमाम खांचों को तोड़ते हुए समाज को नई दिशा दे सकें. द्रौपदी और राधा ऐसी ही नारी थीं और तभी डा. राममनोहर लोहिया द्रौपदी के बारे में कह गए हैं-
‘यह पांचाली भी अद्भुत नारी थी. द्रौपदी से बढ़कर भारत की कोई प्रखरमुखी और ज्ञानी नारी नहीं. कैसे कुरु सभा को उत्तर देने के लिए ललकारती है कि जो आदमी अपने को हार चुका है, क्या वह दूसरे को दांव पर रखने को स्वतंत्र है? पांचों पांडव, यहां तक कि अर्जुन भी उनके सामने फीके थे.’