नमस्कार!
पहचाना? मैं आपका ही पड़ोसी हूं. अरे अभी भी नहीं पहचाना? क्या भाई? राह चलते आपने मुझे कई बार देखा होगा. बस में, मेट्रो में, रेल में, रोड पर. नहीं याद आया? थोड़ा दिमाग़ पर ज़ोर डालो, मुझे विश्वास है आप मुझे ज़रूर पहचान लेंगे.
अभी भी नहीं? चलिये थोड़े सी मदद कर देता हूं.
अरे कल ही आपने मेरा रोड एक्सीडेंट होते देखा था, हां भाई उसी चौराहे पर और मेरी मदद नहीं की थी.
अभी परसों ही आपने मुझे लहुलुहान, बग़ैर कपड़ों के झाड़ियों में पड़े देखा था और गाड़ी की स्पीड बढ़ा दी थी.
पिछले महीने ही तो आप मेरे पड़ोस में रहने आये थे, पर 75 साल की बुढ़िया आपको अपने स्टैंडर्ड की नहीं लगी, इसलिये आपने मेरे Hello बेटा का जवाब नहीं दिया था.
अभी भी नहीं समझे? ये बोल हैं हर उस इंसान के जिसे आप में से किसी ने न किसी ने परेशानी में देखकर भी यूं ही अनदेखा कर दिया था.
इससे पहले कि आप मेरी मानसिक स्थिति तक पहुंचे, आपकी जानकारी के लिए मैं दिमाग़ी तौर पर पूरी तरह से स्वस्थ हूं. ये सरकार के विरुद्ध कोई एजेंडा भी नहीं है (जैसा कि अकसर आप में से कुछ लोगों को लगता है.) बस मन में आया कि अपने सह देशवासियों के नाम कुछ संदेश देना चाहिए, तो टाइप करने बैठ गये.
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कहीं से सुना कि देश में 125 करोड़ से ज़्यादा लोग रहते हैं, इतने सारे लोग एक आकाश तले, एक ही ज़मीन के ऊपर! सोच के ही अपनी अखंडता पर बित्ते भर का गर्व हो जाता है. लेकिन ये 125 करोड़ से ज़्यादा लोगों ने या तो आंखों पर पट्टी बांध ली है या फिर उनके पास दिल ही नहीं है.
जी, नहीं है दिल, जिगरा, हृदय जो भी कह लें.
अजमेर में एक 40 वर्षीय औरत की निर्मम हत्या कर दी गई वो भी उसके बेटे की आंखों के सामने. काला जादू करने के इल्ज़ाम में. और एक आवाज़ तक न उठी.
अगस्त की ही बात है, दिल्ली में एक व्यक्ति सड़क दुर्घटना का शिकार हो गया और 12 घंटों तक पड़ा रहा. लोग आते-जाते रहे. एक ने उसका मोबाईल चुराया, एक ने बैग, एक ने जेब में पड़े 12 रुपये.
बीएचयू में एक छात्रा ने छेड़छाड़ का विरोध किया, तो उसे ही नैतिकता का पाठ पढ़ा दिया गया.
हैदराबाद में एक 75 वर्षीय बुज़ुर्ग की मौत हो गई और 1 महीने तक किसी को भी इस बात की ख़बर तक नहीं हुई.
केरल में एक 8 महीने की गर्भवती महिला की बस से गिरकर मौत हो गई क्योंकि किसी ने उन्हें सीट नहीं दी.
दिल्ली में DTC बस में एक छात्रा के पास बैठा एक आदमी Masturbate करता है और कोई चूं तक नहीं करता.
अंकित सक्सेना पर हमले के बाद, उसकी मां मदद की भीख मांगती रही पर तस्वीरें खींचने और वीडियो बनाने से किसी को फ़ुर्सत नहीं हुई. उल्टे इस घटना को पूरा धर्म और राजनीति का ऐंगल दिया गया.
कर्नाटक में एक Cyclist की सड़क पर पड़े-पड़े मौत हो गई, वहां मौजूद लोग अपनी फ़ोटोग्राफ़ी स्किल्स दिखा रहे थे.
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ये तो कुछ घटनायें गिना दी, ऐसे रोज़ाना कई घटनायें घटती हैं. लड़कियों और महिलाओं के साथ छेड़-छाड़ से लेकर सड़क दुर्घटना का शिकार होते लोग. इन सबसे तो यही साबित होता है कि हम देखकर भी अनदेखा करना बहुत अच्छे से सीख गये हैं.
एक बहुत गंभीर सवाल है, कि आख़िर क्यों हम आवाज़ नहीं उठाते. क्यों हम ये सोचते हैं कि हमसे लेना-देना नहीं तो हम आवाज़ क्यों उठाये?
बात अगर सिर्फ़ सड़क दुर्घटना की करें, तो AIIMS की एक रिपोर्ट के मुताबिक, इन दुर्घटनाओं में 52% जानें सिर्फ़ इसलिये जाती हैं क्योंकि मरीज़ वक़्त पर अस्पताल नहीं पहुंच पाता. सोचिये, कुछ लोग गाड़ी की सीट गंदी होने की इतनी फ़िक्र करते हैं कि एक परिवार के उजड़ने तक की परवाह नहीं करते. जान बचाने के लिए दिल्ली सरकार ने दुर्घटना के शिकार व्यक्ति की सहायता करने के लिए 2000 रुपये का ईनाम भी रखा है.
लॉस ऐंजलेस में जब एक सिरफ़िरे ने ओपन फ़ायर किया था, तब उस घटना के पीड़ितों को ख़ून देने के लिए लाइनें लग रही थीं.
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सड़क चलते किसी भी लड़की पर फ़ब्तियां कसी जाती हैं, कितनी बार ऐसा होता है कि लोग ऐसा करने वाले को रोकते हैं. नहीं, मैं उम्मीद नहीं करती कि कोई किसी के लिए आवाज़ उठायेगा, लेकिन सही के लिए खड़े होना भी एक बात होती है. क्यों नहीं उठती आपकी आवाज़ जब आप किसी मनचले को किसी लड़की को ज़बरदस्ती छूते देखते हैं?
सब अपने-अपने जीवन में इतने रम गये हैं कि पड़ोस के घर में कोई मर जाता है और सालभर बाद भी किसी को पता नहीं चलता. मुंबई में कुछ ऐसा ही हुआ एक महिला के साथ. क्यों आप 5 मिनट निकालकर बुज़ुर्गों की सहायता नहीं कर सकते? और कुछ नहीं तो उनसे 5 मिनट बात नहीं कर सकते?
हर जगह फैला दिया है कि हिन्दुस्तानियों का दिल बहुत बड़ा होता है, एक दफ़ा अपने गिरेबान में झांककर देखिये सच पता चल जायेगा.
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मेट्रो/बस/ट्रेन में कोने खड़े होकर लोग कई बार रोते दिखे होंगे. कोई भी समस्या हो, कभी उन्हें पानी भी पूछने की ज़हमत क्यों नहीं उठाते? वो बूढ़े हैं, फिर भी आप सीट नहीं छोड़ते/छोड़ती क्योंकि आप कान में ईयरफ़ोन डाले आराम कर रहे हैं. क्यों? कभी नहीं सोचा न कि कभी आप भी किसी बात से परेशान होकर रो सकते हैं या फिर कभी आप भी उम्र के आख़िरी पड़ाव पर हो सकते हैं. अब भी वक़्त है अपने अंदर के इंसान को जगायें. यहां एक और बात, इस लेख के लिखने का मकसद कहीं से भी समाज के हर एक इंसान पर इल्ज़ाम लगाना नहीं है, अपने आस-पास जो देखा, उससे भावुक और विरक्त होकर ये लेख लिखा है. मैं जानती हूं कि आज भी कुछ लोग हैं जो दूसरों की पीड़ा देखकर व्यथित हैं लेकिन इस बात को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता कि कई मासूमों ने इसलिये भी जान गंवाई क्योंकि लोग गांधी जी के तीन बंदर बने बैठे थे.
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