बचपन से ही हम एक कहावत सुनते आ रहे हैं कि ‘इतिहास खुद को दोहराता है’. पर बीजेपी के समय जहां पार्टी भक्ति ही देशभक्ति का पर्याय बनने लगी है, ये कहावत भी बदल चुकी है. अब ये कहावत कुछ ऐसे हो गई है कि ‘इतिहास खुद को दोहराये या न दोहराये, पर बदला ज़रूर जा सकता है.’ हाल ही में राजस्थान सरकार ने NCERT की हिस्ट्री की किताब में हल्दी घाटी के युद्ध में अकबर की बजाये महाराणा प्रताप को विजेता घोषित किया है. हालांकि इतिहास क्या कहता है वो हम सब जानते हैं?

किताबों के साथ छेड़छाड़ कर बच्चों के दिमाग में अपनी सोच विकसित करना आसान है, जिसे मनोवैज्ञानिकों के साथ-साथ सरकार भी बखूबी समझती है. इसीलिए इतिहास के साथ छेड़खानी करने के साथ ही वो किताबों से उर्दू और फ़ारसी के शब्द भी हटाने लगी है.

हम सब जानते हैं कि सिवाए फ़ेसबुक पर पोस्ट और ट्विटर पर ट्रोल करने के अलावा हम चाह कर भी कुछ नहीं कर सकते. आखिर रोज़ी-रोटी छोड़ कर कौन फालतू के फंदे में टांग अड़ाता है? अब हर कोई तो भगत सिंह नहीं हो सकता न!

भले ही ये साफ़ हो कि हम कभी भगत सिंह नहीं बन सकते, पर भगत सिंह जैसी सोच तो पैदा कर सकते हैं, जो फासीवादी ताक़तों को पहचानने में कामयाब हो?

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कैसे पैदा हुई उर्दू?

भावनाओं में बह कर भले ही हम ये मान बैठे कि उर्दू एक ख़ास मज़हब की ज़ुबान हो, पर हिस्ट्री और फैक्ट्स यही कहते हैं कि उर्दू उतनी ही देशी है, जितने की हम और आप. इसे समझने के लिए हमें उस दौर में जाना होगा, जब मुगल देश में आ कर बसना शुरू हुए थे. उनकी ज़ुबान पश्तो और फ़ारसी थी. उनके साथ जो सैनिक आये, वो भी इसी भाषा में बात करते थे, जिसकी वजह से उनका सम्पर्क यहां के लोगों से कटने लगा. बेशक देश की सल्तनत पर मुगलों का कब्ज़ा हो गया था, पर अब भी यहां के बाज़ारों पर स्थानीय लोग ही काबिज थे. इन स्थानीय लोगों से बात करने के लिए उन्हें एक ऐसी भाषा की दरकार थी, जो उन तक अपनी बात पहुंचा सके. स्थानियों के लिए भी इन बाहरी लोगों को सामान बेचना एक फ़ायदे का सौदा था.

इसके लिए दोनों तरफ़ से थोड़ी-थोड़ी कोशिश की जाने लगी. स्थानीय पश्तो ओर फ़ारसी के शब्द सीखने लगे, जबकि सैनिक भी हिंदी-अवधी सीख कर बात करने की कोशिश करने लगे. इस तरह जो नई भाषा पैदा हुई उसे लश्करी ज़ुबान का नाम दिया गया, जो आगे चल कर उर्दू कहलाई.

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काफिरों की ज़बान बनी लोगों की ज़बान.

उर्दू की लोकप्रियता बेशक बढ़ने लगी थी, पर शाही सल्तनत की नज़र में वो काफ़िरों की ज़बान थी. इसलिए सारे शाही काम-काज फ़ारसी में होते थे. ये बिलकुल वैसा था, जैसे हिंदी को गंवारों की भाषा कहा जाता था और विद्वानों की भाषा संस्कृत मानी जाती थी.

उर्दू का चलन उस समय शुरू हुआ, जब बादशाहों में शेर-ओ-शायरी का शौक जागा और दरबार में शायरों की इज़्ज़त होने लगी. लखनऊ के नवाब हुसामुद्दौला खुद मीर-तक़ी-मीर को अपने दरबार की शान-ओ-शौकत कह चुके थे. मीर के ही नक़्शे-क़दमों पर चलते हुए असद बाद में मिर्ज़ा ग़ालिब बने. मिर्ज़ा ग़ालिब की इस परम्परा को बाद के शायरों और कहानीकारों ने निभाया और इस तरह लोग उर्दू से खुद को जुड़ा हुआ महसूस करने लगे.

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कहानी यहीं ख़त्म नहीं हुई.

सत्ता में बैठे और तथाकथित देशभक्ति के रंग में रंगे जो लोग ये मानते हैं कि उर्दू मुगलों की गुलामी का प्रतीक है, तो उन्हें समझना चाहिए कि भइया

यदि उर्दू लिखने-बोलने वाले लोग नहीं होते, तो कोई इक़बाल न होताजो कहता कि ‘सारे जहां से अच्छा हिंदुस्तान हमारा.’कोई मंटों न होता, जो 1947 के फ़सादात को अपनी कहानियों से आने वाली पीढ़ियों के लिए ज़िंदा रखता.कोई साहिर न होता,जो देश के नेताओं से सवाल पूछता कि‘जिन्हें नाज़ था हिन्द पर वो कहां हैं?’और तो और जिस ‘इंक़लाब ज़िंदाबाद’ के नारे पर भगत सिंह को कंधों पर चढ़ाते हैं,न होता.

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