78 साल के एथलीट बख्शीश सिंह ने मास्टर एथलेटिक्स चैंपियनशिप के दौरान 1500 मीटर की दौड़ पूरी कर कीर्तिमान रच दिया था. उन्होंने इस जीत को हासिल कर गोल्ड मेडल अपने नाम किया. वो अपनी जीत की ख़ुशी को बर्दाश्त नहीं कर पाए और हार्ट अटैक के चलते दुनिया को अलविदा कह गए. मगर चैम्पियन कभी मरते नहीं हैं. उनके कारनामे और सिद्धांत लोगों के दिल में हमेशा ही ज़िंदा रहते हैं. ऐसे ही होशियारपुर के गांव जल्लोवाल के रहने वाले बख्शीश सिंह भी थे.

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अपनी टीम का हौसला बढ़ाने वाले बख्शीश सिंह ने कहा था,

बीमारी से मरना भी कोई मरना है. या तो जान देश के लिए क़ुर्बान होनी चाहिए या फिर खेल के मैदान में अंतिम सांस आनी चाहिए’. उनके यही शब्द उनकी ज़िंदगी का सच बन गए और उन्होंने खेल के मैदान में ही अपनी आखिरी सांस ली.

1982 में शुरू किया था दौड़ना

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बख्शीश सिंह ने होशियारपुर टीम की तरफ से दौड़ते हुए 1982 में खेल की दुनिया में क़दम रखा था. उनके दोस्त एसपी शर्मा ने बताया कि बख्शीश सिंह फ़ौज में थे. रिटायरमेंट के बाद उन्होंने टीचिंग भी की. बख्शीश सिंह 800 मीटर, 1500 मीटर और 5 हज़ार मीटर दौड़ के अच्छे खिलाड़ी थे. उन्होंने अब तक 200 से भी ज़्यादा मेडल जीते थे, इसलिए लोग उन्हें ‘गोल्डन मैन’ बुलाते थे.

बचपन से दौड़ने के शौक़ीन थे

बख्शीश सिंह के भाई बलविंदर सिंह अमेरिका के रिटायर्ड पुलिस इंस्पेक्टर हैं. उन्होंने बख्शीश सिंह के बारे में बताया कि उन्हें बचपन से दौड़ का शौक़ था. बख्शीश सिंह के बेटे मनमीत सिंह और बहू रजिंदरजीत टोरंटो (कैनेडा) में रहते हैं. उन्होंने बताया कि उन्हें अगले साल जून में कैनेडा में होने वाली वेटरन दौड़ में हिस्सा लेना था. बख्शीश सिंह की पत्नी रिटायर्ड टीचर गुरमीत कौर ने बताया, संगरूर में होने वाली चैम्पियनशिप में जाने से पहले उन्होंने कहा था कि ‘लौट कर गेंहूं की बिजाई करूंगा पर होनी को कुछ और ही मंज़ूर था’.   

खेल को दे दिया सारा जीवन 

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बख्शीश सिंह पूरी ज़िंदगी खेल के मैदान से जुड़े रहे. शुरुआती दिनों में दौड़ में कई मेडल अपने नाम करने के बाद वो फ़ौज में भर्ती हो गए. इसके बाद फ़ौज से रिटायर होने के बाद 1982 से पूरी तरह खेल से जुड़ गए.

ये था उनकी सेहत का राज

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78 साल की उम्र में रॉकेट की तरह दौड़ने वाले बख्शीश अपने खान-पान पर बहुत ध्यान देते थे. वो शाकाहारी चीज़ें खाते थे. वो साल में पांच किलोलीटर शहद पी जाते थे. साथ ही रोज़ दूध के साथ दो पिन्नी और पंजीरी, दो बार हरी सब्ज़ियां और दाल खाते थे. खाली वक़्त में सोने की जगह वो एक्सरसाइज़ करना ज़्यादा उचित समझते थे. वो रात में जल्दी सोते थे और सुबह जल्दी उठते थे. इसके बाद गुरुद्वारा साहिब जाते थे. ये सब निपटाने के बाद वो अपनी दौड़ की प्रैक्टिस करते थे. वो एक किसान भी थे, तो दिन में तीन से चार घंटे खेतों में भी काम करते थे. दौड़ के लिए लोगों की प्रेरणा रहे बख्शीश के सम्मान में उनके पड़ोस के गांव सहोलता में हर साल मैराथन करवाई जाती है.

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