भारत में फांसी की सज़ा को काफी ‘Rarest of Rare’ केस माना जाता है और इसे प्राय: दिया भी नहीं जाता है. हालांकि जब भी फांसी की सज़ा होती है, जज फैसला सुनाने के बाद कोर्ट रूम छोड़ते समय जिस पेन से फैसले को लिखा गया है, उस पेन की निब को तोड़ देते हैं. पेन की निब तोड़ना अभी भी एक अबूझ और अद्भुत पहेली है, जिसे कोई नहीं सुलझा पाया है. आखिर ऐसा जज क्यों करते हैं, यह सवाल आज भी आम लोगों के मन में बना हुआ है. लेकिन आपके हर सवाल का जवाब है यहां.

Vintagepen

दरअसल, पेन की निब तोड़ना एक सिम्बॉलिक एक्ट है. ऐसा इसलिए होता है क्योंकि किसी व्यक्ति के जीवन के फैसले को जिस पेन से लिख दिया जाता है, उस पेन का दुबारा कभी फिर से प्रयोग न हो. साथ ही ऐसी उम्मीद की जाती है कि कोई भी व्यक्ति इस तरह के जघन्य अपराध न करे. हमारे कानून में फांसी की सज़ा सबसे बड़ी सज़ा होती है, क्योंकि इससे व्यक्ति का जीवन समाप्त हो जाता है. इसलिए जज इस सज़ा को मुकर्रर करने के बाद पेन की निब तोड़ देते हैं, ताकि उस पेन का इस्तेमाल दोबारा न हो सके.

Ytimg

सैद्धांतिक तौर पर, Death Sentence किसी भी जघन्य अपराध के मुकदमों के लिए समझौते का अंतिम एक्शन होता है, जिसे किसी भी अन्य प्रक्रिया द्वारा बदला नहीं जा सकता. जब फैसले में पेन से “Death” लिख दिया जाता है, तो इसी क्रम में पेन की निब को तोड़ दिया जाता है, ताकि इंसान के साथ-साथ पेन की भी मौत हो जाए. अकसर यह भी माना जाता है कि शायद फैसले से अपने आप को अलग रखने या फैसले को लेकर होने वाले प्रायश्चित या अपराधबोध को लेकर जज पेन की निब तोड़ देते हैं. एक बार फैसला लिख दिये जाने और निब तोड़ दिये जाने के बाद खुद जज को भी यह यह अधिकार नहीं होता कि उस जजमेंट की समीक्षा कर सके या उस फैसले को बदल सके या पुनर्विचार की कोशिश कर सके.

guyanachronicle

यहां देखिये पवन कुमार का ये वीडियो. पवन कुमार पेशे से अपने परिवार की चौथी पीढ़ी के जल्लाद हैं और ये अपने परिवार की इस परंपरा को आगे ले जाना चाहते हैं. इस परिवार की कुछ रोचक वंशावली है. ये उस परिवार के जल्लाद हैं, जिनके दादा कल्लू ने सन् 1989 में इंदिरा गांधी के हत्यारे को फांसी के तख्ते पर लटकाया था और इनके पिता मम्मू ने 47 साल तक राज्य के जल्लाद के रूप में काम किया था.

Video Source- Vocativ