प्रिय मन्टो…
आपको नाम से बुलाने का हक़ तो मुझे नहीं है. पर आपके नाम के साथ कौन सा विशेषण जोड़ना सही रहेगा, इस कश्मकश में हूं. तो बेहतर यही होगा कि हिन्दी के सारे विशेषणों को किनारे ही कर दिया जाए. मन्टो के साथ ‘जी’ भी नहीं जंच रहा. श्रद्धा और प्रेम के पर्यायों से जो ऊपर हो, उसके लिए क्या जी और क्या मिस्टर?
कैसे हैं आप? अच्छी कट रही है न? सुट्टे की कोई कमी तो नहीं है न? होगी भी तो आप जुगाड़ कर ही लेंगे. कहां हैं आप आजकल. सुनने में आया है कि आपको नर्क से निकाल दिया गया है, अमा क्या आप भी? स्वर्ग से तो पहले ही निकाले जा चुके थे आप. दुनिया में जब तक थे, तब भी किसी को चैन से बैठने नहीं दिया और मरने के बाद भी सिरदर्द बने रहे. आप भी सुधरने का नाम नहीं लेते. यानि अब आप भूतों में शामिल हो गए हैं. चलिए कुछ दिन की मौज है आपकी.
बहुत से लेखकों और शायरों की यादें धुंधली पड़ने लगती हैं, ये ऐहसास तब हुआ जब आपकी किताब को किसी दोस्त ने किसी विदेशी लेखक की किताब बता दिया था. दर्द हुआ था बहुत उस दिन. मन्टो… क्या ये नाम भी भुलाया जा सकता है?
रोज़ाना तो नहीं, पर कई बार आपको अपने मानसपटल के ऊपर अंकित पाया है. नकली पत्रकार होने के नाते ये फर्ज़ भी बन जाता है कि बाकी लोगों को भी आपके बारे में बताया जाए. पर आज नहीं, आज जन्मदिन है आपका, तो आज न मैं एक नकली पत्रकार हूं और न आप एक बेशर्म लेखक.
शर्म की जब कोई हद नहीं है, तो ये कहने में भी शर्म नही कि आपकी वो ब्लैक एंड व्हाइट तस्वीर ने मन को गुदगुदाया था. किताब का कवर बनाने वाले को धन्यवाद, वरना ब्लैक एंड व्हाइट फ़ोटो में भी इतनी हैंडसमनेस?
ख़ैर किताब तो मेरे साथ आ गई और बिस्तर पर मेरे सिरहाने के पास अपनी जगह भी बना ली. बहुत ही एहतियात से पलटे थे मैंने उस किताब के पन्ने, मानो रूई से हों. हाथ लगते ही बिखरने का डर. पहली कहानी तक पहुंचने से पहले, एक बार फिर देखी थी आपकी वो सफ़ेद कुर्ते वाली तस्वीर, दोबारा वही गुदगुदी महसूस की थी.
पहली कहानी थी, ‘खोल दो’. याद है मुझे, कहानी पढ़ने के बाद 2 रातों तक लगातार जागना और बहुत कुछ ऊल-जलूल सा लिखना. पर क्या बलात्कार को भी कोई ऐसे बयां कर सकता है? ख़ुदा से कुछ नेमत मिली थी शायद आपको.
कुछ संभलने पर दोबारा उठाई थी वो हैंडसम सी तस्वीर वाली किताब. दूसरी कहानी पढ़ी, ‘टोबा टेक सिंह’, ठंडे पड़े गोश्त में ज़रा सी जान आ गई, क्योंकि कहानी दर्दनाक होते हुए भी बर्दाशत के बाहर नहीं थी. फिर तो वो सिलसिला शुरू हुआ कि काली सलवार पर ही जाकर थमा.
रंडी, चुतिया, भोंसड़ी जैसे शब्द कानों के लिए बहुत आम हो गए हैं. पर आंखों के लिए ये नए थे. जिस सदी में आपने इनका इस्तेमाल किया था वो भी अपने आप में ही एक आंदोलन ही था, बात तो सही है आपकी, जब बोल सकते हैं तो लिख क्यों नहीं सकते? ऊर्दू तहज़ीब सिखाती है और आपने ऊर्दू मिश्रित हिन्दी में गालियों को भी डाल दिया था, ये किसी हराम से कम थोड़ी था.
मन्टो, अब इंटरनेट का ज़माना है और आपकी कहानियां फ़िल्मों में भी उतारी जाने लगी हैं. सुनने में तो ये भी आया है कि आप पर फ़िल्म बनने वाली है. चिंता नहीं है, नवाज़ुद्दीन हैं उसमें, वो आपके किरदार के साथ न्याय ही करेंगे.
इंटरनेट उस चिड़िया का नाम है, जहां कुछ न होते हुए भी सब कुछ मिल जाता है. आपकी कहानियों का भी अलग-अलग भाषाओं में अनुवाद किया गया है. आप भी तो यही करते थे. विक्टर ह्युगो की किताब ‘The Last Day of a Condemned Man’ का ऊर्दू अनुवाद तो आपने ही किया था, सरगुज़श्त-ए-असीर नाम था न उसका? वर्तनी की अशुद्धता के लिए माफ़ी.
एन.एम.रशीद से झगड़े के कारण ऑल इंडिया रेडियो छोड़ दिया? कैसे? हमें तो रोज़ी-रोटी की फ़िक्र में नींद नहीं आई थी कई रात. रेडियो से लेकर फ़िल्मों की भी कहानी लिखी थी आपने तो, ग़ज़ब, मल्टि-टैलेंटेड बंदे निकले आप तो.
‘बू’ भी पढ़ी थी मैंने. आप पर गुस्सा भी बहुत आया था. इतना तो समझ में आता ही है कि बिना अनुभवों के और जज़्बातों के क़लम चलती ही नहीं. आश़िक़ी तो आपने भी की होगी.
बंटवारे के बाद आपने दुनिया के सबसे पाक़ देश को चुना, चलिए वो आपका निर्णय था. फ़ैज़ साहब, राही साहब से दोस्ती के वो ‘पाक़ टी हाउस’ की गप्पें और बहसबाज़ी याद आती होगी ना आपको? आपके सारे यार-दोस्त तो स्वर्ग में हैं और आपको दोज़ख़ से भी बेदख़ल कर दिया गया है.
आपकी बेबाकी के कारण ज़लील तो साफ़िया को भी होना पड़ा होगा, पर उन्होंने भी आपका ख़ूब साथ दिया. अपनी कहानियों से जहां एक तरफ़ आप कई औरतों को अमर बना रहे थे, वहीं आपकी हमसफ़र को अकेलापन महसूस नहीं होता होगा, इसका जवाब उनसे ज़रूर पूछिएगा.
6 दफ़ा आपको कोर्ट में हाज़िरी देनी पड़ी थी, अश्लीलता के कारण. समाज को कपड़े पहनाने की ज़िम्मेदारी नहीं थी आपकी, पर जैसे अंधे को अंधा नहीं कहना चाहिए वैसे ही नंगे को नंगा नहीं कहना चाहिए. मुकदमे तो होने ही थे. सही कहा था आपने उस अदालत के हुक्मरान से, ‘लेखक क़लम तभी उठाता है, जब उसकी संवेदनशीलता को ठेस पहुंचती है.’
यही तो फ़र्क है आपमें और मुझ में, संवेदनाओं को परे रख के लिखना पड़ता है और संवेदनाओं से लड़ना भी पड़ता है.
आज आप हमारे लिए किसी हीरो से कम नहीं हैं, और मेरे लिए तो सिर्फ़ हीरो नहीं, कुछ और भी हैं. कभी आपकी कहानियों ने आपको कोर्ट तक घसीटा था, आज उन्हीं कहानियों ने आपको कई अवॉर्ड भी दिलाए हैं. इसके अलावा आपने कई लोगों के दिलों पर राज किया है वो अलग.
43 साल की उम्र बहुत ज़्यादा नहीं थी, उम्र के हिसाब से कारनामे बहुत ज़्यादा थे. आपको जितना भी पढ़ा, यही लगा मानो किचड़ में फंस गई हूं या किसी टूटे आईने के सामने खड़ी हूं. जैसे बहुत से लोगों की बिखरी हुई ज़िन्दगियों को जस का तस परोस दिया. एक बार भी नहीं सोचा किे अपनी सच्चाई सामने आने पर उन्हें कैसा महसूस होगा. शायद आप भूल गए थे कि सच कड़वा होता है. उसे बहुत ज़्यादा संभालकर रखना चाहिए.
आपका दौर ही कुछ और था, लोग आपको पढ़ते भी थे और गरियाते भी थे. आज वो दौर नहीं रहा. साहित्य की बात नहीं करूंगी. बस इतना कहूंगी की सबके हाथ में कलम तो है, पर सभी कलम के सिपाही नहीं हैं. तात्पर्य आप समझ जाएंगे, ये विश्वास है मुझे.
इश्क भी ग़ज़ब था आपको, लफ़्ज़ों से भी कोई इश्क कर सकता है भला? कुछ बुद्धिजीवियों का कहना है कि इस्मत के लिए आपके दिल में सॉफ़्ट कॉर्नर था. इसका सही-सही जवाब तो आप ही दे सकते हैं, शायद इस्मत की कहानी ‘लिहाफ़’ पढ़कर आपको लगा हो कि आपका ‘सोलमेट’ तो कोई और ही है. ये ग़लत नहीं, यही तो हमें मानव बनाता है. बिना भावनाओं के मनुष्य कैसा? सुना है, आपको इस्मत और सफ़िया की नज़दीकियां पसंद नहीं थी, ये आपकी पुरुषवादी सोच की एक झलक थी. दोस्ती में दगाबाज़ी तो मन्टो नहीं कर सकते, फिर क्यों आपने इस्मत को बिना बताए देश छोड़ने का अहम निर्णय ले लिया था? एक बार भी उनका ख्याल नहीं आया?
इंटरनेट पर ही कहीं पढ़ा कि आपको पाक़िस्तान बनने का ग़म भी था. ख़ैर ये तो इंटरनेट की बात है. हालांकि आपकी कहानियों को पढ़कर भी कुछ ऐसा ही लगता है. आप भी पत्रकार थे, ऊर्दू पत्रकार और आपने ये पहले ही भांप लिया था कि पाक़िस्तान की कितनी सदगति होने वाली है.
दुख होता है सोचकर की समाज के अनछुए तारों को छेड़ने की हिमाकत करने वाले को समाज से ज़्यादा शराब से लगाव था. ‘पार्टिशन’ पर बहुत सी कहानियां पढ़ी, पर आपकी कहानियां तो पलकों से नींदें ही ले गईं. क्या आपने वो सब देखा था, नहीं शायद आपने चीखें सुनी होंगी. अच्छा है जो आज़ादी के इतने साल बाद पैदा हुई.
सबसे ज़्यादा दुख होता है ये देखकर की आपके ताल्लुकात जिन दो देशों से थे उनसे ज़्यादा पूछ तो आपकी विदेशों में है. यहां तो ‘चेतन’ और ‘रविंदर’ ने पैठ बना ली है. पश्चिम के लोग आपकी तुलना ऑस्कर व्हाइल्ड, डी.एच.लॉरेंस से करते हैं और इधर का हाल तो न पूछिए, आंसू निकल आएंगे आपके.
आपको फ़ेमिनिस्ट नहीं कहा जा सकता. आपने ‘मेरा नाम राधा है’ में वो पहलू दिखाया, जिसके बारे में तो लोग आज तक बात नहीं करते. इस कहानी में एक औरत ने पुरुष का बलात्कार किया था. हिम्मत की दाद दोबारा देनी पड़ेगी, नाम भी चुना तो राधा.
अच्छा ही हुआ जो आप अपनी कहानियां देकर दुनिया से चले गए. अगर आप आज के समय में ‘मेरा नाम राधा है’ लिखते, तो कहानी पढ़ना तो दूर, शीर्षक पढ़कर और आपके ‘पास्ट’ को देखकर ही आपका अहित होने की पूरी संभावना थी.
सच कहूं आपकी कमी कभी कभी महसूस होती है. कोई भी बड़ी घटना(दैनिक ही घट जाता है कुछ न कुछ) घटते देखती हूं तो एक बार ये ज़रूर सोचती हूं, कि मन्टो होते तो क्या कहते या क्या लिखते.
बहुत से सवाल हैं मन्टो, जिनका जवाब मैं आपसे चाहती हूं. पर जब भी आपकी कोई कहानी या आपके ऊपर लिखा कोई लेख पढ़ती हूं, तो एक टीस उठती है… काश कुछ साल और जीते आप… फिर लगता है हर ख़ूबसूरत चीज़ का अंत ख़ूबसूरत हो, ये ज़रूरी तो नहीं. ज़िन्दगी से इक गिला ज़रूर रहेगा कि एक दफ़ा आपसे रूबरू होने का मौका नहीं मिला.
कहीं किसी रोज़, भूले-भटके ही सही एक दफ़ा मिलने ज़रूर आना आप. तब तक आपकी वो ब्लैक एंड व्हाइट तस्वीर तो है ही हमारे पास.
एक जवाब के इंतज़ार में…
संचिता पाठक