वर्तमान में हर राजनैतिक पार्टी डॉक्टर भीमराव रामजी आम्बेडकर को अपना आदर्श मानती है, भाषण किसी भी वर्ग के नेता का हो, वो मंच से आम्बेडकर के आदर्शों की बात ज़रूर करता है. संविधान के ऊपर बात होगी तो आम्बेडकर के योगदान गिनाए बिना बहस ख़त्म नहीं हो सकती. हालांकि हमेशा से ऐसा नहीं था, जीवित रहते बाबा साहब सबके चहेते नहीं थे.

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बाबा साहब का जन्म एक ग़रीब और निचली जाती के परिवार में हुआ था. 14 भाई-बहनों में वो सबसे छोटे थे. पढ़ने-लिखने में अच्छे थे, स्कूल में दाखिला पाने वाले परिवार के पहले सदस्य बनें. मुंबई के जिस सरकारी स्कूल से उन्होंने मैट्रिक तक की पढ़ाई की, वो उसके पहले दलित छात्र थे.

इसके बाद वो 1907 में मुंबई विश्वद्यालय पहुंचे. बाबा साहेब कॉलेज में दाखिला पाने वाले भारत के पहले अछूत जाति के छात्र बने. उनसे पहले कोई अछूत जाति का छात्र कॉलेज की सीढ़ियां नहीं चढ़ पाया था.

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छात्र जीवन में वो चाहे जितने होनहार रहे हों, अन्य दलितों की तरह उन्हें भी छुआछूत का शिकार

होना पड़ा था. जीवन के इस पड़ाव तक समाज ने उन्हें खुले दिल से नहीं स्वीकारा था. ख़ैर, आगे की पढ़ाई के लिए वो बरोदा के वजीफ़े पर अमेरिका चले गए उसके बाद लंदन भी गए.

आम्बेडकर का राजनैतिक बहिष्कार

जिस दौर में बाबा साहेब ने देश की राजनीति में कदम रखा था, उस वक्त चारों ओर कांग्रेस का बोल-बाला था. बाबा साहेब को कांग्रेस के नेताओं पर ख़ास यकीन नहीं था. उनके अनुसार, वो ब्राह्मणों की पार्टी थी, जिसमें दलित हित की बात प्रमुखता से नहीं होती थी. कांग्रेस भी बाबा साहब के विचारों की प्रशंसक नहीं थी.

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कांग्रेस ने पूरी कोशिश की थी कि आम्बेडकर को संवैधानकि सभा से दूर रखा जाए. शुरुआत में जिन 295 सदस्यों को संविधान सभा के लिए चुना गया था, उस लिस्ट से आम्बेडकर का नाम नदारद था.

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बॉम्बे में आम्बेडकर को अनुसूचित जाति संघ का भी साथ नहीं मिला, ऊपर से सरदार पटेल के आदेश पर बॉम्बे के तत्कालिन मुख्यमंत्री बी. जी. खरे ने आम्बेडकर का रास्ता रोकने के लिए पूरी ताकत लगा दी थी.

अंतिम समय में जिन्ना ने साथ दिया…

जब आंबेडकर उम्मीद खोते जा रहे थे, तब उन्हें बंगाल से दलित नेता जोगेंद्रनाथ मंडल ने अपने राज्य में बुलाया और मोहम्मद अली जिन्ना की मुसलिम लीग की मदद से उन्हें संविधान सभा पहुंचाया. बाद में जोगेंद्रनाथ मंडल ख़ुद पाकिस्तान चले गए और पाकिस्तान के पहले क़ानून मंत्री बने. जिन्ना के मरने के बाद पाकिस्तान से मोह भंग हुआ और वापस 1950 में भारत आ गए.

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ख़ैर, जिस ज़िले से आंबेडकर का चयन हुआ था, वो हिंदू बहुल होने के बावजूद पूर्वी पाकिस्तान के हिस्से में चला गया और आंबेडकर अपने आप पाकिस्तान संविधान सभा के सदस्य बन गए, इस वजह से उनकी भारत की संविधान सभा की सदस्यता रद्द हो गई.

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संविधान सभा तक पहुंचने के सभी रास्ते बंद हो गए, तब बाबा साहेब ने कांग्रेस को खुली चुनौती दी, कि वो उनके द्वारा बनाए संविधान का विरोध करेंगे. हार कर कांग्रेस के शीर्ष नेताओं को एम. आर. जयकर द्वारा खाली की गई कुर्सी पर आंबेडकर को बैठाना पड़ा.