दिल्ली यूनिवर्सिटी के कमला नेहरू कॉलेज के एक नाटक पर साहित्य कला परिषद के एक समारोह में कंट्रोवर्सी खड़ी हो गई. वजह ये थी कि, एक डायलॉग में ब्रा, पैंटी जैसे शब्दों के इस्तेमाल की वजह से बेहतरीन परफॉर्मेंस के बावजूद, प्ले को कॉम्पिटिशन से डिसक्वॉलिफ़ाई कर दिया गया. कमला नेहरू कॉलेज ने ‘शाहिरा के नाम’ नाटक प्रस्तुत किया था, जिसकी कहानी 6 महिलाओं के इर्द-गिर्द घूमती है.
थिएटर सोसायटी की कॉर्डिनेटर मोनामी बासु कहती हैं, ‘मंचन के बाद हमें बताया गया कि ‘नामुनासिब लैंग्वेज’ की वजह से नाटक को कॉम्पिटिशन से हटा दिया गया है. उन्होंने कहा कि वो ऐसी पांबदी का विरोध करते हैं, जो महिलाओं की जिंदगी से जुड़ी नॉर्मल चीज़ों जैसे पीरियड, सेक्सुअल डिज़ायर, ब्रा, पैंटी पर बात करने पर लगाई जाती है.
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ये घटना समाज की महिलाओं की आज़ादी के प्रति दोहरी सोच दिखाती है. एक तरफ़ हम सशक्तिकरण की और प्रगतिशील होने की बात कर रहे हैं और दूसरी तरफ हमें ब्रा शब्द का प्रयोग भी नागवार गुज़र रहा है. कला लोगों को शिक्षित करने का एक असरदार माध्यम है, उसे प्रतिबंधित कर के हम समाज को आगे ले जाने के बजाय पीछे धकेल रहे हैं. RJ खुर्की (Zabardast HIT 95 FM)
सवाल ये है कि जब बनियान बोलने पर कोई असहज नहीं होता, तो ब्रा-पैंटी शब्द स्टेज से बोले जाने पर लोग असहज क्यों हो जाते हैं? अगर इनके बोले जाने पर इतना बड़ा कदम उठाया जा सकता है, फिर तो साहित्य कला परिषद को इनके संस्कारी विकल्प भी बता देने चाहिये.
दरअसल, लोग न तो अभी औरतों को इंसान के रूप में देखना सीख पाए हैं और न ही उनके कपड़ों को कपड़ों की तरह. उनके कपड़ों को भी सेक्सुअलिटी से जोड़ कर देखा जाता है. इसलिए उन्हें अश्लील समझा जाता है. ये व्यवस्था घरों में भी देखने को मिलती है. यही वजह है कि अब भी लड़कियों के अंतर्वस्त्र अन्य कपड़ों की आड़ में तार पर सूखने को डाले जाते हैं.
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मैं खुद एक गर्ल कॉलेज से पढ़ी हूं और मुझे अब भी अपने बायोलॉजी टीचर की बात याद है कि आपके प्राइवेट पार्ट्स शरीर के अन्य अंगों की ही तरह होते हैं, जिन पर न तो हमें गर्व होना चाहिए और न ही शर्म. जब पढ़े-लिखे लोग इस तरह की दकियानूसी सोच को बढ़ावा देते हैं, तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का भी मज़ाक लगता है. ज़्यादातर लोगों को स्विमसूट पहने लड़कियां तो बहुत पसंद आती हैं, पर ब्रा और पैंटी सुनने से उनकी संस्कृति बिगड़ जाती है. इस तरह की घटना की जितनी निंदा की जाए, कम है.R.J. दिव्या (रेडियो सिटी)
फ़िज़ूल की सेंसरशिप अब फ़िल्मों, किताबों से होते हुए थिएटर तक भी पहुंच गयी है. कला के माध्यम पर पाबंदियां लगा कर, कला को बांध कर यकीनन समाज को संस्कारी नहीं बनाया जा सकता. इस तरह की आपत्ति होने की जड़ ही असल में महिलाओं के शरीर को, उनके कपड़ों को हौव्वा समझा जाने में है. यदि सही सेक्स-एजुकेशन के ज़रिये शुरू से ही औरत और मर्द के शरीर के बारे में लोगों को शिक्षित किया जाए, तो ये स्थिति बदल सकती है.
कई लोगों ने इस मुद्दे पर कहा है कि ये हमारी संस्कृति के लिए ठीक नहीं है. बड़ा अचम्भा होता है देख कर कि बेधड़क मां-बहन की गालियां देने वाले भी ऐसा मानते हैं. दरअसल, अश्लील कोई शब्द नहीं होता, अश्लील मानसिकता होती है. मात्र इन शब्दों के प्रयोग पर इस तरह का फैसला लिया जाना निंदनीय है.