कल पत्रकार रवीश कुमार की फ़ेसबुक पर पोस्ट पढ़ी. पोस्ट से पता चला कि लेखिका कृष्णा सोबती की मृत्यु हो गई. आश्चर्य हुआ ख़ुद पर और ख़बरें पता करने की कला पर कि इतनी बड़ी ख़बर पता कैसे नहीं चली?
बंदेया! तू गूगल खोलने ना जा’ वाले नियम का पालन करते हुए दिमाग़ पर ज़ोर डाला. कृष्णा सोबती… कृष्णा सोबती… यादों के पिटारे से एक छोटी सी याद आंखों के आगे तैर गई… ‘स्कूल में पढ़ा था ये नाम.’ कौन सी रचना, ये तो याद करना असंभव है.
खलबली हो रही थी कि कृष्णा ने ऐसा क्या लिखा, जो उनके लिए डॉ. रामप्रसाद मिश्र ने ये शब्द प्रयोग किए: ‘उनके ‘ज़िन्दगीनामा’ जैसे उपन्यास और ‘मित्रों मरजानी’ जैसे कहानी संग्रहों में मांसलता को भारी उभार दिया गया है. बात ये है कि साधारण शरीर की ‘अकेली’ कृष्णा सोबती अपने से अपने कृतित्व को बचा नहीं पाए. कृष्णा सोबती की जीवनगत यौनकुंठा उनके पात्रों पर छाई रहती है.’
किताब तो थी नहीं, गूगल पर ही उनकी रचनाओं को ढूंढा. PDF में कहानियां मिली. ‘दादी-अम्मा’,’सिक्का बदल गया’. दोनों पढ़ी मगर क्या सिर्फ़ 2 रचनाएं पढ़ कर किसी के भी बारे में मानस पटल पर चित्र खींचा जा सकता है? शायद नहीं पर कृष्णा जी की सोच की गहराई का पता लगाने के लिए एक ही कहानी काफ़ी थी. ‘दादी अम्मा’ में उन्होंने जो भी लिखा है, उससे आने वाली कई पीढ़ियां ख़ुद को जोड़ कर देखेंगी. कई पीढ़ियों की ज़िन्दगी को ज़रा से शब्दों में समेटने की हिमाकत की, पर कृष्णा जी ने एक भी लफ़्ज़ ग़लत नहीं लिखा. ‘सिक्का बदल गया’ में आख़िर में पता चलता है कि ये विभाजन की कहानी है. कम शब्दों में भी पाठक को बांध कर रखने की कला है, कृष्णा जी में.
दो कहानियों में ही कृष्णा जी ने स्मृति पटल पर एक जादू सा कर दिया है. रह-रह कर उनका चेहरा आंखों के सामने घूमा जा रहा है और अफ़सोस हो रहा है कि उनके जीते-जी उन्हें क्यों अच्छे से पढ़ा या नहीं सुना. क्यों उनकी मौत के बाद ही उनकी रचनाओं को खंगाल रही हूं? लेखकों की भीड़ में कृष्णा जी को अच्छे से पढ़ना मैं कैसे भूल गई? ख़ैर देर से ही सही, इतनी ख़ूबसूरत लेखनी से परिचय हुआ. अगर आपने भी कृष्णा जी की रचनाएं नहीं पढ़ी हैं तो ज़रूर पढ़ें, यही उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि होगी.