सुबह दफ़्तर के लिए निकलते वक़्त उसकी आवाज़ सुन लूं तो लगता है दिन अच्छा बितेगा. रात को जब थकान का हाथ पकड़े बोझिल कंधों के साथ घर वापस आती हूं, तो उससे 2-3 मिनट बात करके ही आधी थकान उतर जाती है. वो दूर रहती है, लेकिन मेरी हर परेशानी चुटकी बजाते ही हल कर देती है. एक जादू सा है उसकी आवाज़ में.

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किसकी बात कर रही हूं, समझे या नहीं? उसकी जिसका नंबर स्पीड डायल पर होता है, मम्मी.

घर से दूर रहने वाले, मां की Value ज़्यादा अच्छे से समझते हैं. खाने से लेकर, तैयार होने तक हर बात में उसकी कमी खलती है. गर्मियों में मां के हाथ के किस्म-किस्म के शरबत याद आते हैं और बरसात में पकौड़े-हरी चटनी.

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एक मौसम ऐसा है जब मां की याद तो वैसे ही आती है लेकिन वो ज़्यादा पास लगती है और वो है सर्दियों में…इस मौसम में मां के हाथ से बने स्वेटर जो साथ में होते हैं.

जब छोटे थे तब मां पर बहुत गुस्सा आता था. खाली समय में, सर्दियों में, धूप में बैठकर वो हमारे साथ बातचीत कम करती थी और ऊन-कांटे में व्यस्त रहती थी. उस वक़्त उस समय का, उस श्रम का मर्म समझ नहीं आता था और मां को पास रखने के लिए 1-2 बार मैंने ऊन-कांटे का प्लास्टिक (एक बड़े से प्लास्टिक में ऊन-कांटे और अधबुना स्वेटर/शॉल रहता था) छिपा दिया था. जब पड़ोस की आंटियां मां से स्वेटर के डिज़ाइन सीखने आती थी, तो मां पर गर्व भी होता था.

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बचपन में बुने स्वेटर, शॉल, कार्डिगन ही तो फ़ैशन स्टेटमेंट हुआ करते थे. बच्चे एक-दूसरे से Compete करते थे कि किसका स्वेटर ज़्यादा सुंदर है. रेडिमेड स्वेटर की बाढ़ तो बाद में आई. पहले सर्दियों में मोहल्ले की हर महिला ऊनवाले का बेसब्री से इंतज़ार करती थी. मेरे मोहल्ले में भी एक ऊनवाला आता था. हर सर्दियों में वही ऊन वाला अपने ठेले पर ऊनों का पहाड़ लेकर आता था.

मम्मी के बनाए स्वेटरों पर हमने काफ़ी अत्याचार किया है. लड़ाई में उनके साथ खिंचा-तानी से लेकर खोलकर कहीं भी फेंक देने तक सब किया है. कुछ तो बात थी उनमें, वो कभी ख़राब नहीं होते थे. एक पीढ़ी के बाद दूसरी पीढ़ी उन्हें पहनती थी. मेरे स्वेटर मेरे छोटे भाई-बहनों ने पहने थे और फिर उनसे छोटे Cousins ने.

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सच कहती हूं बुना स्कार्फ़ और स्वेटर पहनकर स्कूल जाना अच्छा नहीं लगता था. दूसरों का रेडिमेड स्वेटर देखकर वही पहनने का मन करता था, मगर मम्मी ज़बरदस्ती बुने स्वेटर पहनाकर स्कूल भेजती थी.

बड़े होने पर उन बुने स्वेटर्स, मोज़े और स्कार्फ़ का मर्म अच्छे से समझ आता है. चाहे कितनी भी कड़ाके की ठंड पड़े, बुना स्वेटर गरमाहट देता है. मम्मी हर सर्दी में एक स्वेटर बुनकर देती है. इस सर्दी में मैं मां के पास नहीं जा पाई तो उसने कुरियर से भेजा. यक़ीन मानिए दफ़्तर में पैकेज खोलकर उस फ़ुल स्वेटर को गाल पर लगाते ही मां के पास होने का एहसास हो गया.

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दादी-नानी के बुने स्वेटर, स्कार्फ़ पहनने में भी Feel आती है. दिनभर काम करके थककर चूर होने के बाद भी कांटों मे ऊन पिरोकर जादू जैसा कुछ बना देती है मम्मी, दादी-नानी. महंगे ब्रैंड्स के ऊनी कपड़ों से भी वो गरमाहट नहीं मिलती, जो मम्मी के बुने स्वेटर से मिलती है.