10 साल हो गए दिल्ली आए. घर से मास कम्यूनिकेशन का कोर्स करने निकली थी. जब कॉलेज कर रही थी, उस टाइम ख़ूब घर जाती थी. धीरे-धीरे ज़िंदगी की आपाधापी में ऐसा फंसी कि घर धीरे-धीरे कब दूर हो गया पता ही नहीं चला.
फिर उस बीच करियर और जॉब में परेशान रही. हालांकि, मम्मी-पापा को फ़ोन रोज़ करती हूं, तब भी करती थी. मगर कॉलेज और ऑफ़िस में एक बड़ा फ़र्क़ ये है कि उन दिनों कॉलेज और दोस्तों के बीच कई दिन मम्मी-पापा से बात नहीं होती थी तो भी पता नहीं चलता था. आज हर दूसरे पल लगता है कि मम्मी-पापा से कब से बात नहीं हुई है.
तब शायद दोस्त आस-पास होते थे. अब टेंशन होती है. मेरी एक दोस्त दिल्ली में अपने माता-पिता के साथ ही रहती है. एक दिन यूं-ही मैंने उससे पूछा कि यार तू जब परेशान होती है तो क्या करती है?
उसके जवाब ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया. उसने मुझसे कहा,
‘मैं अपने पापा को गले लगाती हूं. कुछ देर उनके साथ बैठकर बात करती हूं और सब ठीक हो जाता है.’
उसके जवाब ने मेरी टेंशन तो दूर नहीं की, उल्टा मुझे सोचने के लिए एक विषय दे दिया कि यार… वो पापा को गले लगाती है!
ठीक उसी समय मैंने सोचा कि मेरे पापा और मैंने तो कभी एक दूसरे को गले नहीं लगाया. कभी हमने एकसाथ बैठकर बात नहीं की. क्योंकि हमारे घर में शुरू से ही पापा से एक दूरी बनाकर रखी गई है. मतलब मम्मी हमेशा बोलती थीं, पढ़ो नहीं तो पापा आ जाएंगे, पापा से शिकायत कर दूंगी, समझे? तो वो एक पापा को देखकर गब्बर टाइप वाली इमेज मेन्टेन हो गई थी. जिसे शायद पापा भी मेन्टेन कर रहे हैं और वो भी बाक़ी पिताओं की तरह भावनाओं को ज़ाहिर करने, रोने और मुझे गले लगाने में संकोच करते हैं.
ये पीढ़ी दर पीढ़ी जो समाज में चला आ रहा है न कि आदमी रोते नहीं, भावुक नहीं होते. शायद इसी मानसिकता ने मेरे और पापा के बीच ये दूरी कर दी. जिसकी वजह से कभी उनके मन में ये बात ही नहीं आई कि मुझे भी गले लगा लें. उस सोच ने एक पिता को भी एक ‘सख़्त इंसान’ और मुझे बेटी से एक लड़की बना दिया, जिसके गले मिलना उनके लिए एक नामुमकिन सी बात हो गई.
समाज की इस सोच की वजह से मुझे मेरे पापा के अंदर छुपा वो दोस्त नहीं मिल पाया, जिससे मैं सारी बातें कर सकती थी. जिसके गले लगकर मैं अपनी टेंशन दूर कर लेती. इस सोच ने मेरे पापा से भी एक दोस्त छीन लिया.
मैं आपसे पूछती हूं ऐसी सोच किस काम की जो रिश्तों में दूरियां ला दे. जिसकी वजह से मैं अपने पापा से गले नहीं लग पाई.
इस सोच को बदलना बहुत ज़रूरी है ताकि फिर किसी को अपने पापा से दिल की बात कहने के लिए ओपन लेटर का सहारा न लेना पड़े. और मेरी दोस्त और उसके पिता की तरह सारे पिता और बेटियां कुछ कहने के लिए गले मिल सकें.