कुछ दिनों पहले बहुत हिम्मत करके मैंने पूरी दुनिया के सामने मैथ्स और अपने रिश्ते के बारे में बात बताई थी. उसकी बेवफ़ाई, रुसवाई के बारे में बताया था. सच कहती हूं बहुत हिम्मत लगी थी. आसान है क्या अपनी मोहब्बत और किसी की बेरुखी की बात लिखना?
संस्कृत से मैं पहली बार कक्षा 5वीं में मिली. आज भी याद है ‘संस्कृत सहचर’ किताब, हरे रंग के कवर और कतई छोटे अक्षरों वाली!!! संस्कृत की किताब मेरी बाक़ी सारी किताबों से काफ़ी अलग थी. बाक़ी किताबों और यहां तक संस्कृत की टेक्स्ट बुक से भी 5वीं कक्षा-कक्षा टाइप फ़ील आती थी पर संस्कृत सहचर अलग ही था.
ऊपर से क्लास में कुछ तीसमारखां ऐसे निकल जाएं जो सारे विषयों में पीछे पर संस्कृत में आगे. समझ नहीं आया कि ये कोई जादू था या इनको जन्मघुट्टी में संस्कृत पिलाई गई थी! डीएवी के बच्चों को कुछ याद हो या न हो पर वेदमंत्र कंठस्थ हो जाते हैं. संस्कृत के उच्चारण में कतई दिक्कत नहीं थी. श्लोक-पाठ वगैरह में पुरस्कार भी मिला था बस क्लास में दिमाग़ सुन्न हो जाता था.
बता रहे हैं, एक चुटकी सिंदूर की क़ीमत रमेश बाबु भी समझ जाएंगे पर एक हलंत, एक अनुस्वार, एक चंद्रबिंदु और एक विसर्ग की क़ीमत सिर्फ़ मैं जानती हूं! 1-1 चिन्ह पर 2-2, 3-3 नंबर गए हैं जनाब. स्टेप मार्किंग जैसा तो कुछ होता है नहीं. अब जिस विषय में कमरतोड़ मेहनत करो, सारे फ़ॉर्मूले लगा लो पर घंटा नंबर आए तो दिमाग़ फिरेगा ही न?
अब अगर कोई संस्कृत का ट्यूशन ले तो प्रलय आ ही जाता न? बिना ट्यूशन के ही मेहनत की पर 100 में 50-60 ही आ पाते थे. 6वीं तक आते-आते ये तो निश्चित कर ही लिया था कि अगर 9वीं तक पहुंच गई तो हिंदी ही अपनाउंगी, भले ही उंगलियां टूट जाएं पर हिंदी ही लूंगी, किया भी वही. और अब तक हिंदी मेरे साथ है.