होली में हुड़दंग न हो, तो फिर होली किस बात की?

सिर्फ़ रंगों के साथ खेलना होता तो, दीवाली मना लेते. रंगोली तो उस दिन भी बनती है, उसी को होली कह लेते. लेकिन होली सिर्फ़ रंगों से नहीं बनती, उसमें हुड़दंग का तड़का भी ज़रूरी है. किंतु हुड़दंग की भी एक हद होती है. आपका हुड़दंग किसी के लिए हादसा न बन जाए, इसका ख्याल रखना भी ज़रूरी है. हम ‘बुरा न मानो होली है’ के तर्क पर सभी कृत को जायज़ नहीं ठहरा सकते.

अब आप सोचेंगे, फ़िर शुरू हुआ इनका नया स्यापा. पानी की बरबादी मत करो, सूखी होली खेलो, हरबल रंगों का ही इस्तमाल करो, ये करो, वो करो. नहीं.हम इस लेख के ज़रिए किसी प्रकार का नैतिक ज्ञान नहीं देना चाहते, त्योहार के वक़्त ऐसी बातें उबाऊ लगती हैं.

हम बस आपको वैसी जगह पर खड़ा करना चाहते हैं, जहां से होली थोड़ी अलग दिखती है. एक वक़्त के लिए फ़र्ज़ कीजिए कि आप चर्म रोग से ग्रस्त हैं या किसी मानसिक तनाव से गुजर रहे हैं, आप की ज़िंदगी में उथल-पुथल मची हुई है.और कहीं से अचानक कोई एक बाल्टी चौथी मंज़िल से आपके उपर फेंक कर चिल्ला दे- ‘अंकल! बुरा ना मानो होली है’.

होली इंसानों को त्योहार है, जानवरों को रंग लगाने का तुक तो कतई नहीं बनता. जानवरों को नहीं मतलब कि किस दिन झूठ पर सत्य की जीत हुई थी. उसे नहीं मतलब कि भक्त प्रहलाद आग के कुंड में कैसे बच गया था. ठीक है, आप अपने पालतु कुत्ते को आपने परिवार का हिस्सा मानते हैं. आप अपनी खुशी उसके साथ बांटना चाहते है. तो, इससे ये सच तो नहीं बदल जाएगा कि वो एक कुत्ता है और रसायनिक रंगों से उसे परेशानी होती है. अपने प्यार की खातिर इस होली अपने पालतु जानवरों को अकेला छोड़ दें. ‘बुरा न मानो होली है’ तर्क का विरोध इंसान तो कर भी दे, जानवर कैसे करेंगे.

दिल से त्योहार मनाते वक़्त थोड़ा दिमाग का इस्तेमाल करने में क्या दिक्कत है? आखिर त्योहार हर किसी के लिए होता है और उसे अपने तरीके से मानाने का हक़ है, बशर्ते किसी को इससे परेशानी नहीं झेलना पड़े. बुरा न मानो होली है.

Feature Image Source- Rediff