सप्ताह भर पहले मैं नोएडा में था. वहां मैं सड़क किनारे बने एक बेंच पर बैठ कर अपने दोस्त का इंतज़ार कर रहा था. ठीक मेरे सामने सड़क के दूसरी ओर से एक ऑटो रिक्शा सार्वजनिक शौचालय के सामने रुकता है. रिक्शाचालक उतरता है और शौचालय के पीछे झाड़ियों में पेशाब कर के चला जाता है, वो शौचालय स्वच्छ और मुफ़्त था.
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आपने उस घटना के बारे में सुन ही रखा होगा जब हम भारतीयों ने अपनी एक नई नवेली ट्रेन में लूट मचा दी थी, हाइवे पर लगे सोलर प्लेट उठा कर घर ले गए थे. ये सब नहीं सुना तो ट्रेन के टॉलेट में ज़ंजीर में बंधे मग तो देखे ही होंगे.
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इन सब चीज़ों का विशलेषण करने पर हम पाते हैं कि एक आम भारतीय के भीतर बहुत कम मात्रा में Civic Sense (इसे आप सामाजिक समझ भी कह सकते हैं) पाई जाती है. ऐसा क्यों है, इसकी वजह तलाशने पर कई कारण सामने आते हैं.
1. भेड़ चाल
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भेड़ चाल का मोटा-मोटी अर्थ निकाला जाए तो ख़ुद का कोई विचार का नहीं होना, अपनी एक ख़ास पहचान का नहीं होना. अधिकतर भारतीय वैचारिक रूप से दूसरों पर आश्रित होते हैं. अपने अनुभव से कह रहा हूं, यात्रियों की भीड़ दिल्ली मेट्रो में भी होती है और भारतीय रेलवे में भी लेकिन गंदगी का जो आलम ट्रेन में होता वैसा आपको दिल्ली मेट्रो में देखने को नहीं मिलता. मेट्रो में आपको कोई गंदगी फ़ैलाते नहीं दिखता तो हम भी अपनी ओर से गंदगी फैलाने से हिचकते हैं.
2. जीवन स्तर
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अगर हम भारत के Civic Sense के सामने यूरोप और जापान के लोगों के Civic Sense को रखें, तो ये ज़्यादती हो जाएगी. भारत की जनसंख्या और उसके लिए मौजूद संसाधन का अनुपात बहुत कम है. साफ़-सफ़ाई, लोक व्यवहार जैसी चीज़ें रोटी, कपड़ी और मक़ान के साथ नहीं खड़ी हो सकती. भारत में रहने वाली एक बड़ी आबादी की पूरी ज़िंदगी इन्हीं संघर्षों में बीत जाती है. ज़िंदगी भर उन्हें Civic Sense जैसी चीज़ सीखने की ज़रूरत ही महसूस नहीं होती.
3. कथनी और करनी में फ़र्क
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जितनी नैतिक शिक्षा हम किताबों में पढ़ते हैं, उसका चौथाई भी आस-पास देखने को नहीं मिलता. उल्टे नैतिकता की बात करने वाले को हमारे समाज में बेवकूफ, कमअक्ल, अव्यवहारिक मान लिया जाता है. बिना पकड़े पड़ोस में कूड़ा फेंकने वाले को, सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने वाले को, घूस देकर काम निकलवा लेने वालों को हमारे समाज में शाबाशी देने की परंपरा है. यहां तो बाप भी उसी घर में बेटी की शादी करवाना चाहता है जिसकी ऊपर की कमाई मोटी हो.
इसलिए भी जो सुविधा संपन्न है, वो भी Civic Sense जैसी चीज़ को ग़ैर ज़रूरी समझता है. चाहे वो ख़ुद घंटों ट्रैफ़िक में फंसा रहे लेकिन मौका पाते ही वो No Parking क्षेत्र में गाड़ी लगा देता है.
4. संवैधानिक कर्तव्य
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बुरी हालत तो ये है कि इस देश में अधिकांश लोगों को अपने अधिकार नहीं पता और जिन्हें अधिकार पता हैं, उन्हें कर्तव्यों का नहीं पता. संविधान ने हमें अधिकारों के साथ-साथ कुछ कर्तव्य भी दिए हैं, उनमें से एक कर्तव्य है कि आप सार्वजनिक संपत्ति को सुरक्षित रखें.
5. संसाधनों की कमी
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जिस मोहल्ले में घंटे भर के लिए पानी आता हो और कतार में 100 से भी ज़्यादा लोग दो-दो गैलन ले कर खड़े हों, उनसे आप Civic Sense की क्या ही उम्मीद कर सकते हैं. ऐसी चीज़ें हमारे आचरण का हिस्सा बनती जाती हैं. उदाहरण के तौर पर मैंने ऊपर जिस रिक्शाचालक की बात की, उसे क़ायदे से शौचालय में फ़ारिग होना चाहिए था लेकिन उसने ऐसा नहीं किया. क्योंकि इससे पहले ढूंढने पर भी शायद ही कहीं उसे मुफ़्त और साफ़ शौचालय मिला हो.
एक देश वहां रहने वाले नागरिकों से बनता है. ऐसे में अगर हम भारत और उसकी व्यवस्था को बेहतर बनाने की सोचते,हैं तो हमे ख़ुद भी अपनी व्यवस्था को बदलना होगा.