ये कुछ ख़बरों की क्लिपिंग्स पर ग़ौर करिए-







हां तो लाल घेरे पर नज़र तो गई ही होगी?
अगर रेप के बाद हत्या कर दी गई तो मृतका की हंसती-खेलती तस्वीरें लगाकर टीवी पर बार-बार दिखाई जाती है. ऐसे शब्दों का प्रयोग किया जाता है जो दर्शकों की भावनाओं को आंखों से बहने पर मजबूर कर दें. वहीं अगर वेबसाइट या अख़बारों की बात करें तो बार-बार उसके लिए ‘पीड़िता’ या ‘Victim’ शब्द का इस्तेमाल किया जाता है.

पत्रकारिता के धुरंधरों से मेरा सिर्फ़ एक छोटा सा सवाल है, ‘क्यों? Victim शब्द ही क्यों?’ जिस लड़की का रेप हुआ है अगर वो दरिंदे/दरिंदों द्वारा क्षत-विक्षत करने के बाद भी ज़िन्दा है तो वो पीड़िता कैसे हो गई? क्या उसके लिए ‘सर्वाइवर’ शब्द का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए?
यही नहीं, सर्वाइवर के बार-बार इंटरव्यू लेने से भी मुझे बहुत आपत्ति है. क्या ये पत्रकारिता के एथिक्स को तार-तार करना नहीं है कि जिस पर इतना कुछ बीता हो उससे बार-बार वही सब याद करने पर मजबूर करना, समझ नहीं आता. अब इस पर लोग कहेंगे कि सर्वाइवर मीडिया से बात क्यों करती है? मेरी समझ से इसका जवाब आसान है, वो हर संभव दरवाज़ा खटाखटाती है जिसके ज़रिए न्याय मिल सके. इन इंटरव्यूज़ को पूरा देख पाना मेरे लिए असंभव हो जाता है, काम के सिलसिले में देखना पड़ जाता है.

रेप के बारे में लिखते समय कई लेखक शायद मशीन बन जाते हैं क्योंकि उन कॉपीज़ में भावशून्यता साफ़ झलकती है. ‘क्या काटा, क्या फाड़ा’ ये सब लिखना ज़रूरी है? क्या बिना इसके रेप की ख़बर नहीं की जा सकती? जिस देश में कभी बलात्कार के सीन्स पर फ़िल्में चल जाती थीं उस देश के लोगों को ऐसे ‘रेप डिटेल्स कॉपी’ देना ज़रूरी है?
इस विषय पर अपने विचार कमेंट बॉक्स में रखिए.