








आप कहेंगे कि इस बार कौन सा ‘ज़बरदस्ती का फ़ेमिनिज़्म’ लेकर आई है ये बेवकूफ़. जनाब, लाल डब्बे में लिखी बातों को फिर से पढ़िए…
हिन्दी, अंग्रेज़ी के कई साइट्स पर अभिजीत बनर्जी और पत्नी, अभिजीत बनर्जी, पत्नी Esther Duflo जैसे वाक्यांश दिखने लगे.
Wife has a name? Achievement?
— Rana Safvi رعنا राना (@iamrana) October 14, 2019
Or did she she just win because she’s his wife?
Terrible heading pic.twitter.com/sWYOwHaB1L
बाद में The Economic Times ने अपनी हेडलाइन बदल ली और हम इसकी सराहना करते हैं.

कई मीडिया वेबसाइट्स पर Esther को सिर्फ़ किसी की ‘पत्नी’ कहने वाला हेडलाइन अब भी जस का तस है.
ये है समस्या
हर एक इंसान के इस समाज में कई रोल्स होते हैं. एक आदमी किसी का पति, पिता, बेटा, भाई, चाचा, फूफा… बहुत कुछ होता है. वैसे ही एक औरत किसी की पत्नी, मां, बेटी, बहन, चाची, बुआ हो सकती है. इन सबसे पहले कोई भी पुरुष या स्त्री एक ‘व्यक्ति’ है, जिसकी अलग पहचान है. पुरुष और स्त्री के सामाजिक दायित्व बाद में आते हैं, पहले वो ख़ुद आते हैं, ये प्रकृति का नियम है. हमने इसे समाज का जामा पहनाया है.
क्या हैं नुक़सान?
जब हम किसी स्त्री के नाम की जगह उसका किसी पुरुष से रिश्ता पहले रखते हैं तो हम उसकी स्वतंत्र पहचान (Individual Identity) को नकार देते हैं. अब अगर ये सवाल लोगों से पूछा जाए कि किन 3 अर्थशास्त्रियों को कल नोबेल मिला तो बहुत कम लोग ही तीनों के नाम ले पाएंगे. ज़्यादा से ज़्यादा ये कह पाएंगे कि अभिजीत बनर्जी और उनकी पत्नी को.
आख़िर हम लिखे तो लिखे क्या?
जवाब है ये-











तीनों अर्थशास्त्रियों के सिर्फ़ नाम लिखे जा सकते थे. अगर 3 की जगह नहीं थी तो किसी एक का लिखा जा सकता था या फिर किस वजह से मिला ये लिखा जा सकता था.
हम तो बस उम्मीद कर सकते हैं कि ये बात सिर्फ़ ज़रा सी होकर न रह जाए और भविष्य में लिखने के तरीके पर काम हो.