आप कहेंगे कि इस बार कौन सा ‘ज़बरदस्ती का फ़ेमिनिज़्म’ लेकर आई है ये बेवकूफ़. जनाब, लाल डब्बे में लिखी बातों को फिर से पढ़िए…


पढ़ लिया, अब भी समझ नहीं आया? शायद नहीं आएगा… लिखने वालों को नहीं आया कि वो किसी से क्या छीन रहे हैं, आप तो फिर भी पाठक हैं. कल ख़बर आई कि भारतीय-अमेरिकी अभिजीत बनर्जी को अर्थशास्त्र का नोबेल मिला है. हर भारतीय के लिए ये गर्व की बात है, सभी अभिजीत को बधाई दे रहे थे.  

कुछ घंटों में अभिजीत की कुंडली भी निकाल ली गई. ख़बरों की हेडलाइन में जेएनयू कनेक्शन, बंगाली मूल, प्रेसिडेंसी का छात्र आदि दिखने लगे. अभिजीत का रेज़्युम आर्टिकल के रूप में नज़र आने लगा. नोबेल क्यों मिला इसका भी विशलेषण पढ़ने को मिला. जो बात कई जगह से ग़ायब थी वो था नाम, Esther Duflo 

हिन्दी, अंग्रेज़ी के कई साइट्स पर अभिजीत बनर्जी और पत्नी, अभिजीत बनर्जी, पत्नी Esther Duflo जैसे वाक्यांश दिखने लगे.


राना सफ़वी ने अपने ट्विटर पर The Economic Times को भी Esther Duflo के Introduction के लिए लताड़ा  

बाद में The Economic Times ने अपनी हेडलाइन बदल ली और हम इसकी सराहना करते हैं. 

कई मीडिया वेबसाइट्स पर Esther को सिर्फ़ किसी की ‘पत्नी’ कहने वाला हेडलाइन अब भी जस का तस है. 

ये है समस्या 

हर एक इंसान के इस समाज में कई रोल्स होते हैं. एक आदमी किसी का पति, पिता, बेटा, भाई, चाचा, फूफा… बहुत कुछ होता है. वैसे ही एक औरत किसी की पत्नी, मां, बेटी, बहन, चाची, बुआ हो सकती है. इन सबसे पहले कोई भी पुरुष या स्त्री एक ‘व्यक्ति’ है, जिसकी अलग पहचान है. पुरुष और स्त्री के सामाजिक दायित्व बाद में आते हैं, पहले वो ख़ुद आते हैं, ये प्रकृति का नियम है. हमने इसे समाज का जामा पहनाया है.


जब बात स्त्रियों की होती है तो कई बार उनकी पहचान को बाद में और उनके सामाजिक रिश्ते को पहले दिखाया जाता है जैसा कि Esther के साथ हुआ. मीडिया में कई लोगों ने उन्हें एक अर्थशास्त्री बाद में कहा, किसी की पत्नी पहले.  

क्या हैं नुक़सान? 

जब हम किसी स्त्री के नाम की जगह उसका किसी पुरुष से रिश्ता पहले रखते हैं तो हम उसकी स्वतंत्र पहचान (Individual Identity) को नकार देते हैं. अब अगर ये सवाल लोगों से पूछा जाए कि किन 3 अर्थशास्त्रियों को कल नोबेल मिला तो बहुत कम लोग ही तीनों के नाम ले पाएंगे. ज़्यादा से ज़्यादा ये कह पाएंगे कि अभिजीत बनर्जी और उनकी पत्नी को.


जिस पल किसी महिला को उसके काम के लिए पहचान नहीं दी जाती उसी पल उसे न सिर्फ़ इंसानों की मेमॉरी बल्कि इतिहास से भी ग़ायब कर दिया जाता है. Esther का नाम अमर हो गया है इतिहास में पर इसे न लेना लोगों की स्मृतियों में नहीं बसने देना है. भारतीय मीडिया के कई वेबसाइट्स ने तो उसका नाम तक नहीं लिखा, सिर्फ़ पत्नी लिखकर छोड़ दिया. नाम न लेकर न सिर्फ़ Esther की पहचान को कम किया गया बल्कि उसके सामाजिक दायित्व को आगे लाया गया.

आख़िर हम लिखे तो लिखे क्या? 

जवाब है ये-

तीनों अर्थशास्त्रियों के सिर्फ़ नाम लिखे जा सकते थे. अगर 3 की जगह नहीं थी तो किसी एक का लिखा जा सकता था या फिर किस वजह से मिला ये लिखा जा सकता था.


सिर्फ़ नोबेल विजेता के साथ ही नहीं, हमारे यहां कि मीडिया अक़सर महिलाओं के साथ ऐसा करती है. फ़लाने अभिनेता की एक्स की फ़िल्म जैसे हेडलाइन कई बार हमारी नज़रों के सामने से गुज़रते हैं. पर ये इतनी आम बात है कि हमें ये नॉर्मल लगता है. यक़ीन मानिए ये नॉर्मल नहीं है. किसी अर्थशास्त्री ने, किसी अभिनेत्री ने वो मक़ाम किसी की पत्नी या एक्स बनकर हासिल नहीं किया, अपने दम पर किया है. 

हम तो बस उम्मीद कर सकते हैं कि ये बात सिर्फ़ ज़रा सी होकर न रह जाए और भविष्य में लिखने के तरीके पर काम हो.