मुग़ल सल्तनत के आखरी बादशाह, बहादुर शाह ज़फ़र. इतिहास इन्हें एक नाकाम शासक के रूप में याद करती है. साल 1775 में जन्में और साल 1862 में सुपुर्द-ए-खाक हो गए. 1857 के सिपाही विद्रोह में सिपाहियों की टुकड़ियों ने मुग़ल बादशाह के नाम का ख़ूब इस्तेमाल किया. दिल्ली के इस बादशाह को ईस्ट इंडिया कंपनी ने लाल किले में राजद्रोह का मुक़दमा चला कर रंगून भेज दिया गया. वो भी तब, जब वो अपने बिस्तर पर पड़ा-पड़ा आखरी सांसें गिन रहा था.
उपर्युक्त सभी बात एक नाकाम नवाब के बारे में थी. अब बहादुर शाह ज़फ़र को एक शायर के रूप में देखते हैं. बहादुर शाह ज़फ़र एक शासक सिर्फ़ किस्मत के हेर-फेर की वजह से बन गए असल में वो एक अव्वल शायर थे. उनके दरबार में रेख़्ता के सबसे बड़े शायरों में से एक, मिर्ज़ा ग़ालिब और इब्राहिम ज़ौक बैठा करते थे. एक शायर का ख़ून इनके रगों से बहता हुआ इनके वारिसों की देह में भी गया. दाग देहलवी बहादुर शाह ज़फ़र के बेटे के सौतले बेटे थे.
बहादुर शाह ज़फ़र ने मोहब्बत की शायरी सबसे ज़्यादा की है. उनकी क़लम जब भी चलती, मोहब्बत ही लिखती. बड़े-बड़े शेर और ग़ज़ल बहादुर शाह ज़फ़र के नाम पर दर्ज हैं. उनकी लिखी कई गज़लें आज भी गुनगुनाई जाती हैं.
पेश-ए-ख़िदमत है बहादुर शाह ज़फ़र के कुछ चुनिंदा शेर:
*काफ़िर-ए-बे-पीर= संत के बिना मूर्तिपूजने वाला
क़िस्सा-ख़्वां= कहानी सुनाने वाला, फ़साना-ए-ग़म= ग़म की कहानी
क़ैस- मजनू का दूसरा नाम, क़ज़ा- मौत
इतिहास की किताबों में बहादुर शाह ज़फ़र के नाम का एक और पन्ना लिखा जाना चाहिए, जिसमें महान शायर बहादर शाह ज़फ़र की बात होगी.