मेहनत से मुकाम हासिल न हो तो दुख होता है, मगर जब मुकाम हासिल करने के बाद भी ज़िंदगी न बदले तो इंसान टूट जाता है. एशियन गेम्स के गोल्ड मेडलिस्ट सरवन सिंह के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ, जिन्हें दो वक़्त की रोटी के लिए 20 सालों तक टैक्सी चला कर गुज़ारा करना पड़ा. (Tragic Life Story Of Gold Medalist Sarwan Singh)
आइए जातने हैं एथलीट सरवन सिंह की कहानी, जिन्हें लोगों ने भुला दिया-
110 मीटर रेस में जीता गोल्ड मेडल
सरवन सिंह ने 1954 के एशियाई खेलों के दौरान 110 मीटर बाधा दौड़ में भारत का प्रतिनिधित्व किया था. ये उनका पहला इंटरनेशनल इवेंट था.उन्होंने अपनी लाइफ़ में पहली बार इतनी संख्या में भीड़ देखी थी, जिनकी नज़रें उन पर थीं. ऐसे मौके पर किसी का भी नर्वस होना बनता है, लेकिन सरवन नर्वस नहीं हुए.
कहते हैं उन्हें उस समय सिर्फ अपनी जीत और देश के लिए स्वर्ण पदक दिख रहा था. उनके इसी आत्मविश्वास का कमाल था कि वो 1954 में मनीला में हुए एशियन गेम्स में 110 मीटर की बाधा दौड़ में को 14.7 सेकेंड में पूरी कर स्वर्ण पदक जीत लाए.
देश को दिया पान सिंह तोमर जैसा हीरा
सरवन सिंह बंगाल इंजीनियरिंग ग्रुप में नौकरी करते थे. यहीं पर उनकी मुलाक़ात पान सिंह तोमर से हुई. साल था 1950 और पान सिंह एक नए रंगरूट के तौर पर भर्ती हुए थे. सरवन सिंह ही उनके इंस्ट्रक्टर थे.
पान सिंह की क़ाबिलियत के सबसे पहले सरवन सिंह ने ही पहचाना. उन्होंने जब पान सिंह को दौड़ते देखा तो समझ गए कि लड़का लंबी रेस का घोड़ा है. उन्होंने तुरंत पान सिंह की मुलाक़ात कोच नरंजन सिंह से करवाई और दोनों ने मिलकर पान सिंह को बाधा दौड़ में ट्रेनिंग दी.
रिटायरमेंट के बाद मुश्किल हो गई ज़िंदगी
कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था कि एक एथलीट जिसने देश के लिए गोल्ड जीता हो, उसके लिए दो वक़्त की रोटी कमाना भी मुश्किल हो जाएगा. सरवन सिंह के के साथ रिटायरमेंट के बाद ऐसा ही हुआ.
1970 के आस-पास जब वो सेना से रिटायर हुए तो उन्हें सरकार से मिलने वाली पेंशन का ही सहारा था, लेकिन उन्हें वो भी नहीं मिली. ग़रीबी से जूझने की स्थिति में वो अपने परिवार से दूर रहकर क़रीब 20 साल तक अंबाला में टैक्सी चलाते रहे. ये टैक्सी उनके एक परिचित ने ही उनकी आर्थिक स्थिति को देख कर दी थी.
Tragic Life Story Of Gold Medalist Sarwan Singh
हालांकि, 70 साल की उम्र में उनसे ये काम भी छिन गया और 1500 रुपये की पेंशन पर उन्हें जीवन गुज़ारने के लिए छोड़ दिया गया. ज़ाहिर है कि इतने पैसों में ज़िंदगी का गुज़ारा नामुमक़िन था. ऐसे में उन्हें खेतों में काम करना पड़ा. फ़िल्म पान सिंह तोमर अंत में दिखाया गया था कि सरवन ने ख़राब आर्थिक स्थिति के कारण अपने मेडल बेच दिए थे, लेकिन एक इंटरव्यू में सरवन सिंह ने इस बात को बिल्कुल झूठ बताया और कहा कि उनके मेडल अभी भी उनके पास हैं.
वाक़ई ये देखना बेहद दुखद है कि जिस एथलीट ने देश का नाम रौशन किया, वो आज ख़ुद अपनी ज़िंदगी अंधेरे में गुज़ारने के मजबूर है.
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