Success Story: ये कहानी झारखंड (Jharkhand) की राजधानी जमशेदपुर के नावाडीह गांव की एक आदिवासी लड़की की है. आज से पहले इस गांव को कोई जनता तक नहीं था, लेकिन आज ये ‘घड़ी वाली लड़की’ के नाम से मशहूर हो गया है. घड़ी बनाने वाली इस लड़की का नाम शीला मुर्मू (Sheela Murmu) है. शीला ने आज अपने हुनर से अपने समुदाय के साथ-साथ अपने गांव का नाम भी रोशन कर दिया है. संथाल परिवार की ये लड़की एक किसान परिवार से आती है.
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दरअसल, शीला मुर्मू के हाथों से बनी लकड़ी की दीवार घड़ियां (Wall Clock) लोगों को काफ़ी पसंद आ रही हैं. शीला 7वीं क्लास से ही ये काम करती आ रही हैं. वो आज न केवल घड़ी बनाकर बेच रही है, बल्कि गांव की महिलाओं व पुरुषों को भी लकड़ी वाली घड़ियां बनाना सिखा रही है. शीला के हुनर को देख हर कोई यही कह रहा है. अगर शीला को अच्छी ट्रेनिंग और संसाधन मिल गए तो वो भविष्य में एक बड़ी कारोबारी बन सकती है.
चलिए लकड़ी की दीवार घड़ियां बनाने वाली शीला मुर्मू की पूरी कहानी जानते हैं-
जमशेदपुर से क़रीब 60 किलोमीटर की दूरी पर स्थित धीरोल गांव में एक टोला है, जिसका नाम नावाडीह है. इस आदिवासी गांव में क़रीब 70 संथाल परिवार रहते हैं. इन्हीं में से एक शीला मुर्मू का परिवार भी है. शीला मुर्मू की वजह से आज गांव की एक अलग पहचान बन गई है. शीला जब 7 साल की थी तब उसने गांव के ही ‘कस्तूरबा गांधी स्कूल’ में पढ़कर क्राफ़्ट का काम सीखा था, जो आज उसके काम आ रहा है. कॉलेज की पढ़ाई कर के साथ-साथ वो आज घड़ी बनाने का काम भी कर रही है.
गांव की महिलाओं को सिखाती हैं क्राफ़्ट
7 साल की उम्र में शीला जब गांव के स्कूल में पढ़ती थी तब वहांसरकारी संस्था से आये कुछ लोग बच्चों को क्राफ़्ट की ट्रेनिंग दिया करते थे. शीला को क्राफ़्ट काफ़ी पसंद आता था और अपनी ट्रेनिंग अच्छे से पूरी भी की. ट्रेनिंग पूरी करने के बाद शीला क्राफ़्ट का छोटा-मोटा काम करने के साथ-साथ गांव की महिलाओं व बच्चों को क्राफ़्ट सिखाने लगी. इस दौरान उसने घर पर ही लकड़ी के कई तरह के छोटे-मोटे आइटम्स बनाने शुरू कर दिए. इसके बाद वो धीरे-धीरे लकड़ी की घड़ियां भी बनाने लगी. गांव के स्कूल में बचपन में सीखी वो कला आज शीला के काफ़ी काम आ रही है.
शीला कैसे बनाती है घड़ी
शीला घड़ी बनाने के लिए सबसे पहले ‘जूडी’ से लकड़ी लाती हैं. इसके बाद उनको सुखाकर उस पर पेपर चिपकाती हैं. पेपर वो कम्प्यूटर से निकालकर लाती हैं. इसके बाद वो लकड़ी पर काग़ज़ चिपकाकर ‘देसी जुगाड़’ से आकृति को काटकर निकालती हैं. फिर उस पर रंग करके बाज़ार से घड़ी का कांटा और बैटरी लेकर आती हैं. कटे हुए ढांचे में लगाने के बाद वो लकड़ी की आकृतियों वाली शानदार घड़ियां तैयार करती हैं. बनाने के बाद वो बाज़ार में जाकर 1 घड़ी 500 रुपये में बेचती हैं.
कॉलेज की पढ़ाई के साथ-साथ शीला 1 दिन में 5 से 7 घड़ी बना लेती हैं. इसके अलावा वो अशोक स्तंभ और देश के कई महापुरुषों की आकृति भी बना चुकी हैं. शीला अब ये काम अपने छोटी बहन रिया मुर्मू को भी सीखा रही हैं. आज शीला हर महीने गांववालों के साथ मिलकर 30 हज़ार रुपये से अधिक का कारोबार कर लेती हैं. आज उनकी हैंड मेड घड़ियां धीरे-धीरे लोगों के बीच काफ़ी मशहूर हो रही हैं.
शीला मुर्मू ने घड़ी बनाने की कोई प्रोफेशनल ट्रेनिंग नहीं ली है, लेकिन आज उसके हाथ की बनी गाड़ियां लुक और क़्वालिटी के मामले में ब्रांडेड घड़ियों से कम नहीं हैं. आज शीला के हाथों से बनी दीवार घड़ियां (Wall Clock) काफ़ी मशहूर हैं. इनकी मांग जमशेदपुर, रांची, पटना, कोलकाता समेत देश के कई शहरों में हो रही है.
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