देश की आज़ादी के लिए कई क्रांतिकारियों ने बलिदान दिया. इस दौरान हर क्रांतिकारी अपने-अपने तरीकों से देश को आज़ाद कराना चाहता था. इन्हीं में से एक क्रांतिकारी नाना साहेब पेशवा द्वितीय (Nana Saheb Peshwa II) भी थे. वो सन 1857 के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के प्रमुख शिल्पकार थे. इस दौरान नाना साहेब ने कानपुर में अंग्रेजों के विरुद्ध ‘स्वतंत्रता संग्राम’ का नेतृत्व किया था.
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सन 1857 के स्वाधीनता संग्राम के प्रारम्भ में भारतीय क्रांतिकारियों ने जीत हासिल कर ली थी, लेकिन कुछ ही समय बाद अंग्रेज़ों का पलड़ा भारी होने लगा. इस दौरान भारतीय सेनानियों का नेतृत्व नाना साहेब पेशवा कर रहे थे. ऐसे में उन्होंने अपने सहयोगियों के आग्रह पर बिठूर का महल छोड़ने का निर्णय कर लिया. इसके पीछे उनकी योजना थी कि किसी सुरक्षित स्थान पर जाकर फिर से सेना एकत्र करें और अंग्रेज़ों से नये सिरे से मोर्चा लें.
13 साल की दत्तक पुत्री मैना कुमारी
अंग्रेज़ों से जंग के लिए जब नाना साहेब महल छोड़कर जाने लगे तो उनकी 13 साल की दत्तक पुत्री मैना कुमारी ने पिता के साथ जाने से इंकार कर दिया. बेटी के इस निर्णय से नाना साहब बड़े असमंजस में थे. नैना का मानना था कि उसकी सुरक्षा के चलते कहीं पिता को देश सेवा में कोई समस्या पैदा न हो. इसलिए उन्होंने बिठूर के महल में ही रहना उचित समझा.
नाना साहेब ने जाने से पहले बेटी को समझाया कि अंग्रेज़ अपने बंदियों के साथ दुष्टता का व्यवहार करते हैं. लेकिन मैना पिता की तरह ही साहसी थीं, उसे अच्छी तरह से अस्त्र-शस्त्र चलाने भी आते थे. इसलिए उसने पिता से कहा ‘मैं क्रांतिकारी की पुत्री हूं, मुझे अपने शरीर और नारी धर्म की रक्षा करना अच्छे से आता है. आप निश्चिंत रहें मैं अपनी रक्षा करने को पूरी हर संभव कोशिश करूंगी’. नाना साहेब बेटी की इन बातों को सुनकर महल छोड़ जंग के लिए निकल पड़े.
नाना साहेब का बिठूर स्थित क़िला, जो कि अब उनका स्मारक है
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नाना साहेब पर 1 लाख रुपये का इनाम
ब्रिटिश सरकार नाना साहेब पर पहले ही 1 लाख रुपये का इनाम घोषित कर चुकी थी. इस बीच ब्रिटिश सैनिकों को पता चला कि नाना साहेब महल से बाहर हैं तो उन्होंने महल को अपने कब्ज़े में ले लिया. मैना को महल के सभी गुप्त रास्तों और तहखानों की जानकारी थी. जब ब्रिटिश सैनिक उसे पकड़ने के लिए आगे बढ़े तो वो वहां से ग़ायब हो गई. इसके बाद सेनापति के आदेश पर महल में तोपें आग उगलने लगीं और कुछ ही घंटों में महल ध्वस्त हो गया. सेनापति को लगा मैना भी महल में दब कर मर गयी होगी. इसलिए वो वापस लौट आया, लेकिन मैना जीवित थी.
मैना कुमारी देर रात जब अपने गुप्त ठिकाने से बाहर आकर ये विचार करने लगी कि उसे अब क्या करना चाहिए? उसे मालूम नहीं था कि महल ध्वस्त होने के बाद भी कुछ सैनिक वहां तैनात हैं. ऐसे में 2 सैनिकों ने उसे पकड़ कर जनरल आउटरम के सामने प्रस्तुत कर दिया. इस दौरान जनरल आउटरम को लगा नाना साहेब पर 1 लाख रुपये का इनाम घोषित है. ऐसे में अगर वो उन्हें पकड़ कर आंदोलन को पूरी तरह कुचल दे तो ब्रिटिश हुक़्मरानों से उसे शाबाशी मिलेगी. इसलिए उसने मैना कुमारी को छोटी बच्ची समझ पहले उसे प्यार से समझाया, लेकिन मैना चुप रही. ये देखकर उसे ज़िंदा जला देने की धमकी भी दी गयी, पर मैना इससे भी विचलित नहीं हुई.
मैना कुमारी की इस ज़िद से आगबबूला आउटरम ने पहले उसे एक पेड़ से बंधा, फिर उससे नाना साहब के बारे में और क्रांति की गुप्त जानकारी जाननी चाही, लेकिन मैना ने ज़रा भी मुंह नही खोला. इस दौरान उसने आउटरम को साफ़-साफ़ कह दिया कि वो एक क्रांतिकारी की बेटी है, मृत्यु से नहीं डरती. मैना की ये बात सुन आउटरम तिलमिला गया और उसने मैना कुमारी को ज़िंदा जलाने का आदेश दे दिया.
3 सितंबर 1857 को उत्तर प्रदेश के एक छोटे से क़स्बे बिठूर में ब्रिटिश सेना ने 13 साल की मैना कुमारी को एक पेड़ से बांधकर ज़िंदा जला दिया. मैना कुमारी बिना प्रतिरोध के आग में जल गई, ताकि क्रांति की मशाल कभी न बुझे.
इस महान बाल वीरांगना को हमारा शत-शत नमन है!
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