देश की आज़ादी के लिए कई क्रांतिकारियों ने बलिदान दिया था. इस दौरान हर क्रांतिकारी अपने-अपने तरीकों से देश को आज़ाद कराना चाहता था. इन्हीं में से एक क्रांतिकारी नाना साहेब पेशवा द्वितीय (Nana Saheb Peshwa II) भी थे. वो सन 1857 के ‘प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम’ के प्रमुख शिल्पकार थे. इस दौरान नाना साहेब ने कानपुर में अंग्रेजों के विरुद्ध ‘स्वतंत्रता संग्राम’ का नेतृत्व किया था. आज हम आपको इसी क्रांतिकारी के बारे में जा रहे हैं, जिनकी मौत को लेकर आज भी इतिहासकार किसी नतीज़े पर नहींं पहुंच पाए हैं.
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कौन थे नाना साहेब पेशवा?
सन 1824 में वेणुग्राम में माधव नारायण राव के घर जन्मे नाना साहेब को साल 1827 में पेशवा बाजीराव बल्लाल भट्ट द्वितीय ने गोद ले लिया था. पेशवा बाजीराव की छत्रछाया में रहते हुए नाना साहेब ने घुड़सवारी, हथियार चलाना और कुशल राजनीति के गुर सीखे. इतिहास में नाना साहेब को बालाजी बाजीराव के नाम से भी संबोधित किया गया है.
पेंशन को लेकर अंग्रेज़ों से विवाद
इसी बीच पेशवा बाजीराब को मराठा साम्राज्य छोड़कर कानपुर के पास बिठूर आना पड़ा. इस समय तक अंग्रेज़ों ने भारत के एक बड़े हिस्से पर कब्ज़ा कर लिया था. इसी दौरान 28 जनवरी, 1851 को पेशवा बाजीराव की मौत हो गई. मृत्यु के समय पेशवा को अंग्रेज़ सरकार से 80 हज़ार डॉलर की पेंशन मिलती थी, लेकिन इसे बाद में रोक दिया गया.
कहा जाता है कि लॉर्ड डलहौजी ने दत्तक पुत्र होने की वजह से नाना साहेब को उनके पिता की पेंशन देने से मना कर दिया था. इस बीच अंग्रेज़ ‘मराठा साम्राज्य’ पर अपना अधिकार जमा बैठे थे. नाना साहेब को जीवन यापन के लिए रॉयल्टी का कुछ भी हिस्सा नहीं दिया जा रहा था. ऐसे में सन 1853 में नाना साहेब ने अपने सचिव अजीमुल्लाह को पेंशन बहाली पर बात करने के लिए लंदन भेजा. अजीमुल्लाह ख़ान हिंदी, फारसी, उर्दू, फ्रेंच, जर्मन और संस्कृत का अच्छा ज्ञाता था. वो अंग्रेज़ों की क्रूर नीतियों का शिकार था, इसलिए नाना साहेब ने उसे अपना सचिव बना लिया था.
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अजीमुल्लाह ख़ान जब ब्रिटेन पहुंचे तो उन्होंने ब्रिटिश अधिकारियों को समझाने की कई कोशिशें की, लेकिन उनकी सभी दलीलें ठुकरा दी गईं. ब्रिटिश अधिकारियों के इस रवैये से नाना साहेब बेहद ख़फ़ा थे. ऐसे में उन्होंने अंग्रेजों के ख़िलाफ़ बगावत को ही अपना हथियार बना लिया. इसी दौरान मंगल पांडे के नेतृत्व में ‘मेरठ छावनी’ के सिपाही अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ विद्रोह का बिगुल फूंक चुके थे. ये ख़बर जब नाना साहेब के पास पहुंची, तो उन्होंने तात्या टोपे के साथ मिलकर ब्रिटिश सरकार के ख़िलाफ़ कानपुर में बगावत छेड़ दी. नाना साहेब के नेतृत्व संभालते ही अंग्रेज़ों को कानपुर छोड़कर भागना पड़ा.
सन 1857 में अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ देशभर में विद्रोह की ज्वाला भड़क चुकी थी. इस दौरान भारतीय सेनानियों का नेतृत्व नाना साहेब पेशवा कर रहे थे. स्वाधीनता संग्राम के प्रारम्भ में भारतीय क्रांतिकारियों ने जीत हासिल कर ली थी, लेकिन कुछ ही समय बाद अंग्रेज़ों का पलड़ा भारी होने लगा. ऐसे में एक समय पर नाना साहेब ने ब्रिटिश अधिकारियों के साथ समझौता कर लिया था. इस दौरान कानपुर का कमांडिंग ऑफ़िसर जनरल व्हीलर अपने साथी सैनिकों व उनके परिवारों समेत नदी के रास्ते कानपुर आ रहे थे, तभी नाना साहेब के सैनिकों ने उन पर हमला कर दिया और सैनिकों समेत महिलाओं व बच्चों को मौत के घाट उतार दिया.
‘सती चौरा घाट’ नरसंहार से दुश्मनी गहराई
कानपुर के सती चौरा घाट (नानाराव घाट) पर हुए इस नरसंहार के बाद नाना साहेब और अंग्रेज़ों की दुश्मनी ने गंभीर रुख अख्तियार कर लिया. इस घटना के बाद ब्रिटिश पूरी तरह से नाना साहेब के ख़िलाफ़ हो गए और नाना साहेब के गढ़ बिठूर पर हमला बोल दिया. इस हमले के दौरान नाना साहेब किसी तरह अपनी जान बचाने में कामयाब रहे. लेकिन बिठूर क़िले से भागने के बाद उनके साथ क्या हुआ ये आज भी बड़ा सवाल है.
इतिहासकारों का कहना है कि, इस दौरान नाना साहेब ब्रिटिश सेना से जान बचाकर नेपाल भागने में सफ़ल हो गए थे.
क्या था नाना साहेब के खजाने का रहस्य?
रहस्य केवल नाना साहेब के ग़ायब होने का ही नहीं, बल्कि उनके बेशकीमती खजाने का भी है. अंग्रेज़ों ने जिस समय नाना साहेब के महल पर हमला किया, तब उनके हाथ नाना साहेब तो नहीं लगे, लेकिन दौलत के भूखे अंग्रेज़ों ने उनके महल को कुरेदना शुरू कर दिया. इस दौरान गुप्त खजाने की तलाश में रॉयल इंजीनियरों व आधी ब्रिटिश सेना को काम पर लगा दिया गया. खजाने की खोज के लिए अंग्रेजों ने कुछ भारतीय जासूसों की भी मदद ली. जिसके चलते वह खजाना ढूंढ पाने में लगभग सफ़ल हो ही गए.
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इस दौरान अंग्रेज़ों को महल में 7 गहरे कुंए मिले. जिनमें तलाशने पर उन्हें सोने की एक प्लेट मिली. इससे ये पक्का हो गया कि नाना साहेब का खजाना इन्हीं कुओं में कहीं छिपाया गया है. इस बीच जब सारा पानी निकाल कर जब कुंए की तलाशी ली गई, तो कई बड़े-बड़े बक्से दिखे, जिसमें सोने की कई प्लेटें, चांदी के सिक्के व अन्य बेशकीमती सामान रखा हुआ था. अंग्रेज़ों के हाथ एक बड़ा खजाना लग चुका था. बावजूद इसके नाना साहेब खजाने का एक बड़ा हिस्सा अपने साथ ले जाने में कामयाब रहे थे.
नाना साहेब की मौत का कोई सबूत नहीं
इतिहासकारों के मुताबिक़, नेपाल के ‘देवखारी’ गांव में रहते हुए नाना साहेब किसी बुख़ार की चपेट में आ गए थे. इसी बीमारी की चपेट में आकर मात्र 34 साल की उम्र में 6 अक्टूबर, 1858 को उनका निधन हो गया. वहीं, कुछ इतिहासकारों का मानना है कि, नाना साहेब अपने आख़िरी दिनों में नेपाल में नहीं, बल्कि गुजरात के ‘सिहोर’ में नाम बदलकर रह रहे थे. इस दौरान उन्होंने अपना नाम स्वामी दयानन्द योगेन्द्र रख लिया था और बीमारी के कारण उनका निधन हो गया था.
आज भी देश की आज़ादी के लिए लड़ने वाले क्रांतिकारी नाना साहेब पेशवा की मौत एक रहस्य बनी हुई है.
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